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[साधारण धर्म हृदयोंको ही मन्दिररूपसे क्यों न जीर्णोद्धार कर लिया जाय ?
सीतापति की कोठरी चन्दन जड़े किवाड़ । तालो लागे प्रेम की खोलें कृष्ण मुरार ॥
अर्थः-मायापति भगवान् इस हृदयरूपी कोठरीमें ही विराजमान हैं । दैवी-सम्पदरूप शुभ गुण ही इस कोठरीके चन्दनजड़ित किवाड़ हैं । अनन्य प्रेम अर्थात् अपने-आपको भगवान्के चरणोंमें खो बैठना, यही इसकी ताली है। और जब अपने-आपेको हार बैठे तब स्वयं कृष्ण-मुरारि ही इसके खोलनेवाले होते हैं।
पूर्वपक्ष-मूर्ति भगवानका फोटो है, यह तो हम भी मान लेंगे, परन्तु सर्वव्यापी भगवानको मूर्तिरूप ही मानकर उसकी पूजा करना तो पापाणपूजा ही होगी।
समाधान- यदि आपका फोटो सामने रखकर आपका प्रेमी आपके गुणानुवाद गायन करे और आपको फोटोके पीछे छुपा दिया जाय तो क्या अपने प्रेमीके सुन्दर भावोंसे द्रवीभूत हो आप प्रकट न हो पाएँगे और उसको आलिङ्गन न करेंगे ? इसी प्रकार जब भगवानको आप सर्वव्यापी मानते हैं, तब क्या भूर्तिदेशमें उसका अभाव हो सकता है ? यदि मूर्तिमें उसका अभाव है तो उसकी सर्वव्यापकता भङ्ग होगी। यदि वह वहाँ है तो जब भगवद्भक्त अपने श्रद्धापूर्ण आस्तिक भाषसे उस सर्वव्यापीको लक्ष्य करके निम्न भावोद्गारद्वारा परमेश्वरकी आराधना करता है.(१) नमोस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये सहस्रपादाक्षशिरोरुवाहवे।
सहस्रनाम्ने पुरुपाय शाश्वते सहस्रकोटियुगधारणे नमः ।।