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[ साधारण धर्म कैसे सकती है ? इस प्राकृतिक नियमपर किसका इसारा है ? वास्तवमें जब ऐसा है तव प्रतिमापूजन सर्वथा अनिवार्य है, क्योकि यह अपने इष्टदेवके रूप, गुण, स्वभाव व लीलाओंका फोटो सम्मुख खड़ा कर देनेवाला है।
वास्तवमें सत्य ही हमारा धर्म है और सत्य ही ईमान, जो कुछ कहा जायगा सत्य ही कहा जायगा, चाहे कोई भला माने चाहे बुरा ! जो लोग इस बुतपरस्तीका खण्डन करते हैं वे भी किसी न किसी रूपमें मनको मारकर चोरीसे ही इस परस्ती में लगे हुए हैं। ईसाई महाशय गिरजाके द्वारपर ही पहुंचे थे कि ऊपर सूलीका निशान दीख पड़ा, झट ईसाकी सूली याद आई और टोप सिरसे उतर पड़ा। मुस्लिमभाई मसजिदमें गया काबे का चिह्न देखा, विना कहे अपने-आप मन सिजदा कर बैठा। सिक्खलोग दरवारसाहिवमें गये, ग्रन्थसाहिवको तत्काल मत्था टेक दिया, चाहे अन्थसाहिवके प्राणरूप जो वचन हैं उनके आगे सिर न मुका हो, परन्तु स्थूल शरीररूप ग्रन्थसाहिबको तो अवश्य ही मत्था टेका जायगा। अपनी काश्मीरकी यात्रामें लेखक एक ग्राममें सिक्खोंकी धर्मशालामें ठहरा । चौकीपर जहाँ ग्रन्थी बैठकर पाठ किया करता है, लेखक वैठा हुआ था। ग्रन्थसाहिब सन्तोपकर अलमारीमें विराजमान कर दिये गये थे। एक सिक्ख प्रेमी आया चौकाके आगे मत्था टेका और लेखकसे कहा, "श्रापको प्रत्थसाहिवकी चौकीपर बैठने का कोई अधिकार नहीं, आप नीचे बैठो।" लेखक तत्काल नीचे बैठ गया और कहा, "प्यारे ! शरीररूप अन्थसाहिबका
आपने अवश्य आदर किया, परन्तु उनके प्राणरूप वचनोंका जिनकी प्रत्येक पंक्तिमें संतोंकी महिमा गाई गई है, अवश्य अपमान किया है। समाजीमहाशय भी इसी प्रकार चाहे प्रतिमापूजन न करते हों, परन्तु जब उन महर्षिका फोटो उनके