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[ साधारण धर्म अर्थः-विद्या व विनयसे युक्त ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्त' और चाण्डालमे भी पण्डितजन समभावसे देखनेवाले होते हैं। __ प्रेमशून्य विपमदृष्टि रखकर दूसरोंको धकेलनेसे क्या प्रयोजन ? इस धक्कापेलीमें तो तुम्हारा मैदान रुक गया। तुम श्राप पिछड़ गये। यह लो! तुम तो धक्कापेलीमें ही रहे और प्याला (Cup) दूसरोंने ही जीत लिया। वास्तवमे बात तो है यूँ कि यह मतमतान्तर तो एक प्यालेके रूपमें हैं, जिनके द्वारा प्रेम-भक्तिरूपी अमृत पीना ही लक्ष्य था। 'प्रेमामृत' न सही, 'प्रेमसुरा' हो सही; प्रेमप्याला होटोंसे लगा कि मस्ती आ गई
और प्याला हाथोंसे छूट गया । अव प्याला चाहे सोनेका हो चाहे मिट्टीका, रहे या फूटे। परन्तु शोक ! तुम तो असली मधुको ही भुला वैठे और प्यालोंपर ही झगड़ने लगे। तुमको क्या जरूरत कि तुम धर्मके नामपर दूसरोंसे मन खट्टे करते रहो! तुम्हारा सम्बन्ध तुम्हारी अपनी प्रकृतिके साथमे है, दूसरोंका उनकी अपनी प्रकृतिके साथ। यदि दूसरा कोई गलत मार्गसे जाता है तो ईश्वरीय नाति आप डंडेकी चोटसे उसे सीधे मार्गपर ले आयेगी, उसकी आँखोंमे कोई नमक नहीं डाल सकता। प्रकृति का काम अपने हाथमें लेकर तुम अपने-आपको पथभ्रष्ट क्यों करते हो १ तुम अपने सत्य पर डटे रहो, फिर दूसरे अपने आप तुम्हारे पीछे दौड़ेगे। दीपक अपने प्रकाशमे जलने लगेगा तो पतग अपने-आप उसपर न्यौछावर होनेके लिये दौड़े आएँगे। विचारसे देखा जाय तो अपना सुधार न करके दूसरोंके सुधारने की चेष्टा ही इसका मूल है। वास्तवमें सुधार हमेशा प्रापेका ही होता है । जब हम अपना सुधार कर लेते हैं तब दूसरोंका सुधार विना ही किसी चेष्टाके हो जाता है। परन्तु जब हम पहले ही दूसरोंका सुधार करने दौड़ते हैं तो न अपना ही सुधार होता है न दूसरोंका, बल्कि सुधारके स्थानपर दोनोंका विगाड़ कर बैठते