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प्रात्मविलास ]
[२०६ धर्म नहीं किन्तु अधर्म है। हे मुनिश्रेष्ठ ! धर्म वही है जो सबके प्रति अवरोधी हो।
जिस प्रकार दर्पण सव प्रकारके प्रतिविम्बोंको धारण करता हुआ भी आप किसीसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो न किसीको बाधा देता है और न किसीकी बाधाको ग्रहण करता है, वही धर्म कहा जा सकता है। भला बाधा देना भी कभी कोई धर्म हुआ है । परन्तु शोक । कि धर्मके नामपर खूनकी नदियाँ बहाई जाती हैं और धर्मको अधर्ममें बदल दिया जाता है। हमको क्या अधिकार है कि किसी दूसरेकी प्रकृतिपर अाक्रमण करें ? अकबरने अपने दरबारियोंकी परीक्षाके निमित्त अपने दरबारमे एक मीधी रेखा खींचकर उनसे कहा, "इसको छोटा कर दो" । दरवारियोंमेंसे किसीने उसको दाहिनेसे किसीने वाग्ले काटना प्रारम्भ किया। अकवरने कहा, "यू नहीं, ये नहीं; विना काटे छोटा कर दो।" बीरवलने एक दूसरी रेखा उसके नीचे उससे लम्बी खींचकर कहा, "यह लो! आपकी रेखा छोटी हो गई ।" ठीक, इसी प्रकार प्यारे मतावलम्बियो । दूसरोंकी रेखाओंके काटने-पीटनेका व्यवहार प्रशस्त नहीं, दूसरोकी रेखाको काटे विना तुम अपनी रेखाको लम्बी कर दो, प्रेमकी घुड़दौडमें तुम अपनेको आगे बढा ले जाओ, दूसरे आप पीछे रह जायेंगे। 'ढाई अक्षर प्रेमके पढ़े सो पण्डित होय'। 'प्रेम' शब्द के अन्दर ढाई अक्षर हैं जिसने इनको यथार्थ रूपसे पढ़ा अर्थात् ठीक-ठीक व्यवहारमें लाया वही पण्डित हुआ।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्रामणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके व पण्डिताः समदर्शिनः ।।
(गी. ५ श्लो. १८)