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आत्मविलास ]
[२०० (द्वितीय) वह जो अन्य व्यक्तिको सुनाई न दे और ओष्ठ व जिहा हिलते रहे।
(तृतीय) वह जिसमें पोष्ट व जिहाका हिलना भी बन्द हो जाय और केवल कण्ठसे ही होता रहे।
प्रथम प्रकारका जप कनिष्ठ, दूसरे प्रकारका मध्यम पीर तीसरे प्रकारका उत्तम है। कनिष्ठ प्रकारके जपके अभ्याससे मध्यमकी सिद्धि होती है और मध्यमके अभ्याससे उत्तमकी। अपका सम्बन्ध हृदयसे है, अन्तमें अभ्यासकी प्रौढ़तासे कण्ठ भो रुक जाता है और हृदयसे ही जप होता रहता है। कनिष्ठ जपसे शक्ति वाहर निकल जाती है हृदयपर प्रभाव नहीं पड़ता, मन उपके साथ नहीं जुड़ता। इसके रढ़ अभ्यासद्वारा मध्यम जपसे हृदयपर सापेक्ष अधिक प्रभाव पड़ता है, मन कुछ-कुछ जुड़ने लगता है और उत्तमसे हृदयपर और अधिक प्रभाव पड़ता है। जपका उद्देश्य यह है कि कीर्तनद्वारा श्रवणजन्य सस्कारोंमें जो जलसिञ्चन हुआ था, जपके द्वारा के हृदयमें हढमूल हो जाएँ और उपास्यदेवके प्रति भक्तिका स्रोत उमड़ आएं। ___ उपासनाकी पञ्चम श्रेणी प्रतिमापूजन है, अर्थात् दासमाव पञ्चमत्रेणी' प्रतिमा- से इष्टदेवकी मूर्तिको इष्टदेव रूपसे पूजन पूजन, अर्थात् पाद सेवन करना । 'प्रतिमा' शब्दका अर्थ वह अर्वन व वन्दन-मकि ।। साधन है जिसके द्वारा प्रमाण किया जाय, मापा जाय, तोला जाय । जैसे एक सेर लोहे का वट्टा जिसके द्वारा सेरभर वस्तु तोली जाय, अथवा दो हाथ लम्बा एक गज जिसके द्वारा गजमर वन मापा जाय, प्रतिमा कहे जा सकते हैं । इसी प्रकार इष्टदेवकी मूर्ति जिसके द्वारा इष्टदेवका प्रमाण किया जासके, प्रतिमा कही जा सकती है। परन्तु जिस प्रकार लोहे का वट्टा अपने वरावर भारी वस्तुको