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[साधारणधर्म निकाल सकता है और पवित्र भावोद्गारद्वारा ही सत्त्वगुण हृदयमें भरपूर होकर रजोगुणको बाहर निकाल फैकवा है, शान्तिकी लहरें हृदयमें उमड़ती हैं और ऑखें भी उसका जवाब देती हैं । वास्तवमें मनकी जड़ताको पिघलानेका साधन सच पूछिये तो सगुणभक्ति ही है, इमीके द्वारा मन व शरीरसे अपना अधिकार तृणके समान टूट जाता है । इस अवस्थामें ही वह वंशीधर शरीर व मनरूपी बाँसुरीको अपने हाथमें ले लेता है और इस बॉसुरीसे मनोहर स्वर निकालता है । इसीलिये भगवान्ने श्रीमुखसे सगुणभक्तिकी महिमा गीतामे इस प्रकार कथन की है :
मध्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेतास्ते से युक्ततमा मताः॥
अ. १२ श्लो. २) अर्थः-(अर्जनके प्रश्नपर कि सगुण व निर्गुण भक्तिमें श्रेष्ठ कौनसी है, भगवान् कहते हैं कि) मेरे सगुणरूपमे मनको एकाग्र करके निरन्तर मेरेमें जुड़े हुए जो भक्त अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त हुए मुझे भजते हैं वे मुझे अति उत्तम योगी मान्य हैं। प्रवासात । श्रद्धाका सामान्य अर्थ विश्वास है और
गुरू व शास्त्रके वचनोंमे विश्वास श्रद्धा का मुख्य अर्थ है । मानसिक प्रकृतिका यह नियम है कि जैसा-जैसा इस जीवका विश्वास होगा वैसी-वैसीही इसकी भावना होगी, वैसी-वैसी ही इसकी गति व चेष्टा होगी और फिर वैसा ही इसका स्वरूप हो जायगा । पुनर्जन्मके मूलमे यही रहस्य है कि जैसीजैसी इस जीवकी श्रद्धा होती है वैसी-वैसी इसकी भावना होती है, उस भावनाके अनुसार ही इसका कर्म होता है और फिर उन