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[ साधारण धर्म मति कीरति गति भूति मलाई । जे जेहि जतन जहाँ जब पाई ॥ सो जानहु सत्सङ्ग प्रमाऊ ।
लोकहु वेद न आन उपाऊ ॥ सच्छास्त्र व सत्सङ्गका फल यह है कि इनके सम्बन्धसे विरोधी संस्कार जो जन्मान्तरसे हृदयमें भरते चले आये हैं, बाहर निकलकर असम्भावना दोषकी निवृत्ति हो जाय, भगवत्सम्बन्धी संस्कार हृदयम ठस जाएँ और सांसारिक वस्तुओंमेसे सुख-साधनता-बुद्धि निकलकर 'भगवान ही एकमात्र सुखस्वरूप हैं। यह निश्चय हद हो जाय, क्योंकि संस्कार ही जीवके लिये एक मुख्य वस्तु हैं। जैसे-जैसे संस्कार होंगे वैसी वैसी ही जीवकी चेष्टा, गति तथा दृष्टि होगी। जैसा अन्दर भरेगे वैसा ही वाहर निकलेगा। सेनिमाके खेलमे जैसा-सा रूप अन्दर फिल्मपर सूक्ष्म रूपसे होता है वैसा ही वाहर पड़देपर स्थूल रूपमे दिखलाई पड़ता है। इसी प्रकार जैसे संस्कार इसके अन्दर सूक्ष्म रूपसे होते हैं वैसा ही यह संसारको स्थूल रूपसे वाहर देखता है ।
ज्यासनाकी तृतीय श्रेणी है 'कीर्तन भक्ति' । जो कुछ तृतीय श्रेणी, कीर्तन- | सत्सङ्ग व सच्छास्त्रसे श्रवण किया गया भक्ति।
| है, परस्पर मिलकर उसीका कथन व ---------- चचो करना तथा वारम्बार भगवत् व भगवद्भक्तोका गुणानुवाद गायन करना 'कीर्तन-भक्ति' कहलाती है। जो संस्कार उपयुक्त सत्सङ्ग व सच्छास्त्रद्वारा मृदुरूपसे हृदयमे प्रविष्ट किये गये हैं वे दृढमूल होकर फलने-फूलनेके योग्य हो जाएँ, यही कीर्तन-भक्तिका प्रयोजन है । यह कीर्तन-भक्ति उन संस्कारोंमे जलसिञ्चनरूप है। कीर्तनद्वारा चित्तपर वड़ा प्रभाव