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आत्मविलास]
[१८४ पड़ता है । श्रद्धा व भावनायुक्त भस्तके चिनको कीर्तन स्तब्ध कर देता है। भगवानका वचन है :
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः । नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपायते ॥
(गी भ., ११) मचित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।।
(गी. भ...) अर्थः-दृढ़ निश्चयवाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम च गुणों का कीर्तन करते हुए, मेरी प्रामिके लिये यन करते हुए, मेरेको भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हुए प्रौर मेरे ध्यानमे जुड़े हुए मुझे पूजते हैं। जिनके चित्त व प्राणोंको चेधा मेरेमें है, ऐसे भक्तजन परस्पर एक दूसरेको वोधन करते हुए,मेरे ही गुण-प्रभावका कथन करते हुए नित्य सन्तुष्ट होते हैं और मेरेमे ही रमण करते हैं।
उपासनाको चतुर्थ श्रेणी 'स्मरण भस्ति है । अर्थात् भगवान् चतुर्थ श्रेणी, स्मरण-1 के नामको बारम्बार व्यवधानरहित प्रेमभक्ति व नामहिमा। पूर्णक उच्चारण करना, इसीको जप भी
- कहते हैं । भगवान्ने गीतामें जपको यज्ञरूपसे अपनी विभूतियोंमे अपना ही रूप वर्णन किया है और सव यज्ञोंमें जप-यज्ञको महत्त्व दिया है । यथा:
'यज्ञानां जपयज्ञोस्मि' (म. १. प्लो. २५) सव शास्त्रों, मतों और पन्थोंने मुक्तकण्ठसे नामकी महिमा गायन की है। आधुनिक कालके भिन्न-भिन्न पन्थोंके सञ्चालक अवतारस्वरूप महापुरुष श्रीकवीरजी, श्रीगुरु नानकदेवजी,