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[साधारण धर्म ' अन्ततः उस कृष्णवर्णका ही किन विचित्र रसिकभावोंमें विर
स्कार कर रही है! यह सुनि कहो और इक ग्वाली । कहत कहा मधुकर सो पाली ॥ उन्हींको संगी यह जोऊ । चञ्चल चित्त श्याम तनु दोऊ ।। वे मुरलि अनि जगि जगमोहन। इनकी गुञ्ज सुमनदल जोहन । वै निशि अनत प्रात कहुँ आने । ये घसि कमल अनत रुचि मान। वे द्वै चरण सुभग भुज चारी ये पट पद दोउ विपिन विहारी॥ वे पट पीत मञ्जु तनु काछे । इनके पीत पंख दोउ आछे ॥ वे माधव ये मधुप कहावत । काहुभाँति भेद नहीं आवत ।। वे ठाकुर ये सेवक उनके । दोऊ मिले एक ही गुनके ।। कहा प्रतीति कीजिये इनकी । परी प्रकृति ऐसी है जिनकी । निरस जानि माजत पल माहों। दया धरम इनके कछु नाहीं॥ मन दे सरवस प्रथम चुरावें । बहुरौ ताके काम न आवै । इनकी प्रीति किये यो माई । ज्यों भुसपरकी भीति उठाई । दो०-कह्यो एक तिय सुन सखी, कारे सब इक सार । __इनसों प्रीति न कीजिये, कपटिनकी चटसार ।। सो०-देखो करि अनुमान, कारे अहि कारे जलद ।
कविजन करत बखान, भ्रमर काग कोयल कपट ।। १. श्रीकृष्ण । २. भवरा । ३. फूल की पाँखड़ी । ४. वन ! ५, कोमल । ६. पाठशाला।
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