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आत्मविलास ]
[१८० 'घर मेरा है,कुटुम्ब मेरा है'इत्यादि रूपसे तुच्छ पदार्थोंको पकड़से ही निसका हृदय कठोर है उसका इस पथपर क्या काम ? क्योकि यह नियम है कि जितनी-जितनी पदार्थोकी पकड होगो उतनी. उतनी ही हृदयकी कठोरता होगी और कठोरताका भक्तिके साथ विद्वप है। भक्तिके लिये तो कोमलताकी आवश्यकता है, हृदय कोमल हो तो उससे गङ्गाके प्रवाहकी नगई प्रेममा प्रवाह चले। इस लिय पदार्थोंका ममत्व परित्याग करके जिसकी संसार में निष्कामभावसे (जिसका निरूपण 'निष्काम-कर्म के प्रसनम पीछे किया गया है) प्रवृत्ति है, उदारता करके जिसकी उपष्टि नष्ट होगई है, कोमलतासे हृदय पूर्या हुआ है तथा खान-पान, पहरान व भाषासम्बन्धी व्यवहारमे सरलभान जिसके अन्तर प्रवेश कर गया है वही उपासनाका अधिकारी है। प्रथम माता, पिता तथा आचार्यमें देवबुद्धिसे श्रद्धा करके ही इस उपासनाका श्रीगणेश होता है, इसी अभिप्रायसे शास्त्रने भाज्ञा दी है:
'मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, श्राचार्यदेवो भव'
अर्थात् माता, पिता तथा आचार्यको देवरूपसे ग्रहण करो। इस प्रकार जब इन शरीरोंमें भक्तिभाव उत्पन्न होता है और अपनेसे वयोवृद्ध, वर्णवृद्ध, पाश्रमवृद्ध, विद्यावृद्ध तथा ज्ञानवृद्ध शरीरोंमे प्रणाम, वन्दना एवं उत्थानादिद्वारा श्रद्धाभाव प्रकट होने लगता है,तभी यह अधिकारी ईश्वरभक्तिका पात्र हो सकता है। चित्तको कोमलताद्वारा सोपान क्रमसे अभावको गलित कर-करके सर्वत्र ईश्वरदर्शन करा देना ही उपासनाका मुख्य प्रयोजन है । परन्तु जब उन उपर्युक्त जीते-जागते पूज्य शरीरोंमे ही चित्त न झुके, बल्कि उनके प्रति स्तब्धता ही बनी रहे, तव एकाएक प्रतिमामें ईश्वरबुद्धि कैसे उत्पन्न हो सकती है ? इसी लिये प्रथम उपर्युक्त शरीरोंमे श्रद्धा-भक्तिभाव उत्पन्न होना परमाघश्यक है, और यही उपासनाकी प्रथम श्रेणी है।