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[साधारण धर्म किया नायगा अथवा बोला जायगा वह किसी न किसी विशेषण का ही सूचक होगा, निर्विशेष पदमे मन-वाणीको गम है ही नहीं। वाणी प्रतियोगी व व्यवच्छेदककी ही वाचक है और जहाँ विशेषण-विशेष्यरूप गुण-गुणीभाव विद्यमान है वहाँ निर्गुणता से क्या सम्बन्ध ? फिर चाहे हम सगुण भक्तिसे विद्वप करके निर्गुण भक्तिका आग्रह भले ही करे,किसी श्राकारसे घृण पड़े किया करे, परन्तु वास्तवमें अपने आचरणोंसे तो हम सगुण व
1. परस्पर विरोधीका नाम प्रतियोगी' है, जैसे घट अपने घटामायका प्रतियोगी है।
२. व्यवच्छेदक उस विशेषणको कहते हैं जो अन्य वस्तुओंसे अपने विशेष्यको मिश्च करके बोधन करा दे जैसे 'कुण्डली पुरुष' । यहाँ कुण्ठलने अन्य पुरुषोंसे कुण्डलचालेको भिन्न करके जितला दिया। इस प्रकार शब्दका स्वभाव है कि वह किसी न किसी विशेषणको लेकर परिच्छिन. वस्तुको ही बोधन करेगा, अपरिच्छिन-वस्तुके बोधन कराने में शब्द किसी प्रकार समर्थ नहीं है। भाशय यह है कि निर्गुण परमात्मा मनावाणीकी गम नहीं है। यदि निस्प, अज, अविनाशी शब्दोंसे उसका कथन-चिन्तन किया जायगा तो यह निस्य, भज भादि उसके विशेषण ही होंगे,ये उसका स्वरूप नहीं हो सकते, और जब यह विशेषण हुए सब अनिस्य, जन्म व नाशसे मिव ही उस परमात्माका बोध होगा |परन्तु वह परमात्मा अपनी व्यापकता करके किया विशेषणका विशेष्य नहीं हो सकता, यदि किसी विशेषणवाला माना जाय तो उसकी व्यापकता भग होती है और अनित्य,जन्म व नाशादि गुणक्रियाओंमें उसका अभाव सिद्ध क्षेता है,परन्तु घरात:किसी स्थल में उसका अभाव नहीं है और मन-धाणी किसी न किसी विशेषण बिना कपन-चिन्तनमें समर्थ हो नहीं सकते, क्योंकि वे स्वयं देश, काल व वस्तु-परिच्छेदपाले हैं। इसलिये वाणी व मनद्वारा जो कुछ भी कथन-चिन्तन होगा मह सगुणताके अन्तर्गतही रहेगा।