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आत्मविलास ] वल्कि अपने आत्माके लिये ग्यारे हैं, जब वे जीवनरूप प्राण भी अपने अात्माके लिये सुखदाई नहीं रहते तो उनकी भी वलि चढ़ा दी जाती है। अनेक मती स्त्रियोंका जीवन इसका ज्वलन्त दृष्टान्त है । वर्तमानमे भी जलमें दृव मरना, अग्निमै जल जाना
और अपने-आप फॉसी लगा लेना आदि अकाल मृत्युकी चेष्टा इस वातके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि वर्तमानमे उनका जीवन उनके लिये सुखरूप नहीं रहा था। इसमें स्पष्ट हुआ कि सम्पूर्ण प्रिय पदार्थ अपने प्रात्माके लिये ही प्यारे हैं, वे अपने लिये प्यारे नहीं । जो-जो वस्तु जितनी-जितनी आत्माके निकटतर है, उतनाउतना ही उसमें अधिक प्रेम है । पुत्रके मित्रकी अपेक्षा पुत्र अधिक प्रीति है, पुत्रादि की अपेक्षा अपने स्थूल शरीरमे अधिक प्रीति है और अपने स्थूल शरीरकी अपेक्षा प्राणामे अधिक प्रीति है। प्राणोंमे प्रीति सूक्ष्म शरीरके सम्बन्धसे है और सूक्ष्म शरीर मै आत्माका आभास होने करके प्रीति है, अर्थात् सूक्ष्म शरीर अपने आत्माका मुंह दिखानेके लिये दर्पणस्थानीय है। इससे स्पष्ट है कि वास्तवमें प्रेमस्वरूप न कोई वाह्य पदार्थ है, न स्थूल शरीर है और न सूक्ष्म शरीर ही, किन्तु परमप्रेमका विषय केवल वास्तविक प्रेम, प्रेमस्वरूप अन्तस्थित आत्मा मैं ही हूँ । वाह्य पदार्थ वास्तवमें प्रेमस्वरूप नहीं, बल्कि मेरे वास्तविक प्रेमस्वरूपकी छाया हैं। जिस-जिस पदार्थपर मेरे वास्तविक प्रेमस्वरूपकी छाया पड़ती है, वही प्रेमका विषय बन जाता है। अर्थात् वाह्य पदार्थ तुम्हारे लिये प्रेमस्वरूप तभीतक ठहरते हैं 'जबतक तुम उनको आत्मष्टिसे ग्रहण करते हो, जिस क्षण उन पदार्थोमसे तुम्हारी आत्मभावना खिसकी, कि प्रेम भी तत्काल पीठ दिखाता होता है।
प्रेमियो । तुम यथार्थ रूपसे इस रहस्यको न जान मेरे लिये कष्ट सहते हुए भी मुझको नहीं पाते, अन्तत मेरी भूख