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श्रात्मविलास]
[ १६६ पर अधिकार पाकर संसारके यावत् पदार्थोंसे प्रेम पा सकते हो
और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तुम्हारे लिये प्रेमस्वरूप धन मकना है। इसके विना कोई पदार्थ तुमको सन्तुष्ट नहीं कर सकता, बल्कि तुम्हारी भूखको अधिकाधिक बढाता हो जाता है।
अबतक इस प्रसङ्गमें जो यह कहा गया है कि 'बाह्य पदार्थ प्रेमस्वरूप नहीं, बल्कि अपना हृदयस्थ-यात्मा ही परमप्रेमका विपय है। इसका अर्थ यह न समझ लेना कि यह कथन तो कोरा स्वार्थमूलक है। 'अपनेसे ही प्रेम करो' यह तो नारा संसार ही चिउंटीसे लेकर ब्रह्मापर्यन्त प्रत्येक प्राणी अपनी प्रत्येक चेठाम अपने स्वार्थके गीत गा रहा है, फिर तुम्हारे इस कथनसे क्या सिद्ध हुश्रा १ इस प्रकार अर्थका अनर्थ न कर डालना, परमप्रेम का गला न घोट डालना। यह आत्मप्रेम स्वार्थमूलक नहीं। किन्तु स्वार्थत्यागकी अवधि है, केवल ठोस समताभरा प्रेम है। इस श्रात्मप्रेमका अर्थ मन, इन्द्रिय व शरीरादिसे अथवा शरीरके स्वार्थियोंसे प्रेम करना नहीं है,किन्तु मन,इन्द्रिय और शरीरादिका सार व आधारभूत परमज्योति, जो मन आदिके विकारोंसे सर्वथा निर्विकार है, वही परम प्रेमका विषय है । शरीरादि विकारी वस्तु तो प्रेमयोग्य हो हो नहीं सकती, जो वस्तु प्रत्येक क्षण बदल रही हो उससे तो प्रेम सुखसाधन हो ही नहीं सकता। उससे तो प्रेम धोखेकी टट्टी है जो कि उल्टा फलेजेको विदीर्ण किये बिना नहीं छोडता । प्रेमके योग्य तो वह नित्य-निर्विकार परम सत्य ही है जो नित्य एकरस रहकर सम्पूर्ण पढाथोंमे इसी प्रकार परिपूर्ण हो रहा है जैसे कटक-कुण्डलादिमें स्वर्ण, घटशरावादिमें मृतिका, अथवा पटमे सूत्र एव तरङ्ग-फेन-बुदबुदोंमें एक ही जल तरझायमान रहता है । 'जो एक मेरे व्यष्टि शरीरमे
है. वही परमज्योति समष्टि शरीरोंमे तृण, मृत्तिका,पापाण, नदी, पर्वत, वृक्ष, पशु, पक्षी एवं चारों ग्वानियों और चारों