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आत्मविलाम]
[१६२ प्रेमस्वरूपका मुखडा दिखलानेके कारण ही ये प्रिय हैं अपने स्वरूपसे कदापि नहीं।
प्रेमियो । कैसा आश्चर्य है कि तुम आप ही अपने अन्तरीय वेगसे आतुर हुए अपनी प्रेमभरी दृष्टियोंसे वाह्य पदार्थीको सुन्दरता प्रदान करते हो और आप ही उनके पीछे दौड पड़ते . हो। वस्तुतः सुन्दरता पदार्थगत नहीं है, बल्कि तुम अपनी मनोहर दृष्टियोंसे ही वस्तुओंको मनोहर बनाते हो। उनको मनोहरता प्रदान करनेवाले तो तुम आप ही होते हो और फिर आप ही उनके लिये तड़प-तडपकर अपनेको व्याकुल कर लेते हो । यदि सुन्दरता पदार्थगत होती तो कोई एक पदार्थ सबके लिये सुन्दर ठहरना चाहिये था, अथवा जिस पदार्थको जिस व्यक्तिने सुन्दर जाना है वह उसके लिये सदैव सुन्दर बना रहना चाहिये था, परन्तु यहाँ तो इन दोनों नियमोंका ही व्यभिचार है।
एक वार एक राजाने लैला व मजनूं के प्रेमकी चर्चा सुन मजनूं को अपने दरवारमे बुलवाया और लैलाके प्रति उसका पूर्ण प्रेम पाकर उसे लैलाके देखने की इच्छा हुई। परन्तु जब उसने लैलाको बुलाकर देखा तो विल्कुल श्याम वर्ण पाया । राजाने अपने महलकी सुन्दर रानियोंको मजनके सम्मुख खडा करके कहा, इनमेसे किसी एकको पसन्द करलो । मजनूं ने पुकारकर कहा "अरे नृपति । अपनी मूर्खता क्यों प्रकट करता है १ तेरे वे ऑखें कहाँ हैं जिनसे तू मेरो लैलाका देख सके ? तु मेरी आँखों से मेरी लैलाको देख ।" __ठीक, यही अवस्था सारे संसारकी है। सम्पूर्ण सौन्दयोंका स्रोत प्राणियोंके अपने अपने हृदयोंसे ही निकलता है और प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी स्वर्णमयी दृष्टिसे ही अपनी-अपनी वस्तुओंको सुन्दरता प्रदान करनेवाला होता है । जिस प्रकार सूर्यको रश्मि पर्गत, पृथ्वी और वृक्षादि सम्पूर्ण जड पदार्थोंपर