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[साधारण धर्म 'मैं अपने कर्मोका फल ईश्वरार्पण करता हूँ' इस जिज्ञासु का अपने काँके साथ यह भाव अवश्य रहना चाहिये । इस भावके विद्यमान रहनेके कारण वे कर्म फिर फलशून्य भी नहीं रह सकते, क्योंकि फल कर्ममे नहीं, फल केवल भाव में ही है। यद्यपि उन कोका फल संसार तो नहीं है, क्योंकि उनके साथ सांसारिक वासनारूप भाव सर्वथा नष्ट हो चुका है, तथापि ईश्वर-प्राप्तिरूप वासनाके सद्भावसे अन्तःकरण की निर्मलता तथा भक्तिके प्रादुर्भावद्वारा पारमार्थिक जिज्ञासा की दृढ़ता इन कर्मोका फल अवश्य रहना चाहिये।
परन्तु एक तत्त्ववेत्ता ज्ञानीके सम्बन्धमे ऐसा नहीं है, उसने तो अपने हृदयमें ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करके भेद दृष्टिको स्वरूपसे ही दग्ध कर दिया है, परिच्छिन्न-अहंकार
और उसके परिणाम कर्ता बुद्धि व कर्तव्यबुद्धिको भी भस्म कर दिया है तथा भाव और भावके उत्पादक मन व बुद्धि को भुने वीजके समान भर्जित कर दिया है एवं कर्म और कर्मके साधन निम्न लिखित छः कारकोंको ब्रह्मरूपसे निश्चय कर लिया है। कर्ता कर्म च करणं सम्प्रदानं तथैव च । अपादानमधिकरणमित्येतानि कारकाणि पट ।।
इसीसे उसके कर्मों में फल उपजानेकी शक्ति ही नष्ट हो गई है । चाहे स्थूल दृष्टिसे उसके द्वारा किये गये कर्मों में मन, बुद्धि और भावका सम्बन्ध देखनेमें आवा भी हो,
कर्म करनेवाला । २. जिसपर कर्म किया जाय । ३. जिसके द्वारा कर्म किया जाय | ४. जिसके लिये कर्म किया जाय । ५.जहाँसे कर्म किया , जाय । ६. जिसमें कर्म किया जाय । ज्याकरण शास्त्रमें कर्मके साधनभूत ये छ: कारक माने गये हैं।