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आत्मविलास ]
[१५२ यही है कि उसमें जलसे भारी तरल पदार्थ अर्थात् पारा भरते जाएँ । ज्या-ज्यों पारा पात्रमें घर करता जायगा त्यों त्यों जल उसमेंसे निकलता जायगा, क्योंकि पान सर्वथा खाली नहीं रह सकता और कुछ नहीं तो वायु ही उसमें भर जायगी । ठीक, इसी प्रकार हृदयरूपी पात्रको सांसारिक इच्छात्रोंसे खाली करनेके लिये ईश्वर प्राप्तिरूप जिज्ञासा इसमें ठूस-ट्रेस कर भर देना जरूरी है । इस पवित्र जिज्ञासाकी बढ़ी चढ़ी अवस्था ही वैतालकी तृप्तिका एक मुख्य साधन है, जो ईश्वर कृपा, गुरुकृपा और शास्त्रकृपा आदि अन्य साधनोंको इसी प्रकार खींच लाती है तथा अन्य साधन अपने-आप इसी तरह खिंचे चले आते हैं, जैसे दीपक जब अपने प्रकाशमे जलने लगता है तव चारों ओरसे पतग अपने आप उसके साथ जलनेके लिये खिची चली आती हैं। इस प्रकार इस जिज्ञासुद्वारा सभी कर्म फलाशारहित कर्तव्य-बुद्धिसे ईश्वरार्पण तो कये जाते हैं परन्तु जहाँ-जहाँ कर्तव्य-बुद्धि होती है वहाँ-वहाँ कर्ता-बुद्धि भी अवश्य बनी रहती है । 'मैं फर्मका कता हूँ
और अमुक कर्म करना मेरा फर्ज है' यही कर्ता-बुद्धि व कर्तव्य बुद्धिका लक्षण है। इस प्रकार कर्ता-बुद्धि विना कर्तव्यबुद्धि आ ही नहीं सकती, पहले 'कर्ता' बनेगा तभी 'कर्तव्यगर्दनपर सवार होगा जो कि परिच्छिन्न-अहंकारके ही परिणाम हैं। इस लिये परिच्छिन्न-अहंकार द्वारा कर्तव्य-बुद्धिसे किये गिये कर्म चाहे फलकी इच्छारहित भी क्यों न हों परन्तु उनका फल होता अवश्य है। क्योंकि जैसा पीछे 'कर्म की व्याख्या' में (पृ. १३६ से १३८ पर) स्पष्ट किया जा चुका है, कर्तव्यबुद्धिस किये गये कर्मों में मन-बुद्धि की आढ़त कर्ता-बुद्धि की विद्यमानताके कारण अवश्य रहती है, इसलिये वे कर्म भाव की उत्पति अवश्य करते हैं, मावशून्य नहीं रह सकते।