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आत्मविलास]
[१५८ भ्र कुटि-विलाससे कम्पायमान होते हैं, उस कृष्णको भो तूने चन्दर की भॉति नाच नचाया। 'ताहि ब्रजकी गोपनियों छछिया भर छाछ पै नाच नचावे" ___ राजा भ्रहरि और गोपीचन्द्र आदिने तेरे लिये राज-सिंहासनको तिलाञ्जलि देकर तनपर भस्म रमाई। वेचारे मजनूं को तूने वन-वनमें भटकाया, फरहाद जैसे दीनने तेरे लिये पहाड़ोंको मैदान बना दिया और अन्तत. अपने हाथों अपने ऊपर कुल्हाड़ा मार अपने आपकी ही तेरे ऊपर वलि चढ़ा दी। कोयल तेरे लिये कूक रही है, वुलवुल तेरे लिये रो रही है, फूल तेरे साथ मिलकर खिलखिला रहा है। हँसतेको रुलाना, रोते को हँसाना तेरा एक खेल है। ओ प्यारे । तू वडा रसीला है ! तेरे रसरूपकी थोडी भी चटक जिस किसीसे मिली वही अमृत बन गया । तेरे संयोगसे कुजाति भीलनीके झूठे बेर भी अमृतरूप सिद्ध हुए, दासीपुत्र विदुरके छिलकोंने सुध-बुध विसार दी, दरिद्री-सुदामाके सूखे तन्दुलाने वह मजा दिया कि उसके पाद-प्रक्षालनके लिये कन्हैया ने'पानी परातको हाथ छुवो नहीं, नैननके जलसे पगु धोये।"
'शेप गणेश महेश दिनेश सुरेशहु जाहि निरन्तर गावे, जाहि अनादि अनन्त भखण्ड अच्छेद अभेद सुवेद बता । जाहि हिय लखि आनन्द ह जद मूढ हिय रस खानि कहाधे, ताहि आजकी गोपनियाँ बछिया भर छाल पे नाच नचावे ।। नऐसे पिहाल विवायन सू भये कण्टक जाल लगे पुनि जो ये। हाय । महादुर पाये ससा तुम आये इतै न ति दिन नोये ।। देखि सुदामाको दोन दशा करणा करिके करुणानिधि गये । 'पानि पगतको हाय छुओ नहि नैननके जलसे पगु धाय' ।।