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[साधारणधर्म कहते हैं और 'वात्सल्यता' भी कहते हैं। अपने समवयसवालों से प्रेमको 'प्रेम' अथवा 'मित्रता' कहा जाता है। अपने पूज्यों में प्रेमको 'श्रद्धा' कहते हैं। स्वार्थ-बुद्धिसे सांसारिक पदार्थों में प्रेमको 'राग' कहते हैं और ईश्वरमें पवित्र-निष्कामविसे प्रेमका नाम 'भक्ति है। । वास्तबमें प्रेमके समान कोई रसीला पदार्थ संसारमें प्रेमकी महिमा / 'न भूतो न भविष्यति' अर्थात् न हुआ है
और न होगा । सारा संसार ब्रह्मासे लेकर चिउँटीपर्यन्त प्रेमका ही मतवाला देखा जाता है। प्रत्येक ज्यक्तिकी दौड़-धूप वेचैनीके साथ प्रेमको ही आलिङ्गन करनेके लिये हो रही है। कोई सुन्दर रूपोंपर मोहित हो रहा है तो कोई रसीले शब्दोंमे अटका हुआ है। कोई कोमल स्पर्शोमे उलझा हुआ है तो कोई सुस्वादु रसोंपर लव हो रहा है। कोई रसभीनी सुगन्धोंपर वलिहार जा रहा है तो कोई मान-बड़ाईपर न्यौछावर किया जा रहा है। कहॉतक वर्णन किया जाय ? मनसहित छहों इन्द्रियोंने सारे संसारको नचा डाला और इस संसाररूपी नृत्यभुवनमे सम्पूर्ण भूतजातके नृत्यका जो विषय है, वह केवल प्रेम है। अरे अभागे प्रेम ! तू ऐसी क्या वस्तु है ? जिसने सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको अपने लिये 'फणि मणि बिनु जिमि जल विनु मीना' की भॉति तड़फा दिया है ! सत्य बता तू ऐसा क्या जादू भरा हुआ है, जिसने सभी चित्तोंको भरमाया हुआ है।
'जादु वह जो सर पर चढ़के वोले पाँच वर्षके बालक-ध्रुवको तूने राजमहलसे निकाल निर्जन वनमें जा धकेला । प्रह्लादको तूने तन खम्भसे बॉधा, अग्नि में डाला और पत्थरोंकी वर्षा की। गोपियोंने तेरे लिये सव धर्सकी मर्यादाओंको नमस्कार किया और ब्रह्मादि देवता जिसके