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जीवका कर्मके माथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । जो कुछ भी, जब कभी भी, जिस किसीको भी, जिस प्रकार
कर्मका महत्व | प्राप्त होता है उसके मूलमे अपना कर्म ही है । संसार में धन, पुत्र, स्त्री, मान, अपमान, सुख, दुःख, रोग, आरोग्य यावत् पदार्थोकी प्राप्ति तथा वियोग कर्मके अधीन हो सिद्ध होता है । अङ्ग-प्रत्यङ्गकी रचना भी कर्मानुकूल ही रची जाती है। इतना ही नहीं, बल्कि जो कुछ भी हम ऑखसे देते हैं, कानसे सुनते हैं, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधमय सम्पूर्ण संसार जीवके अपने कर्मसे ही रचा गया है । इहलोक, परलोक सम्पूर्ण ईश्वरसृष्टिके मूल में निमित्तरूप एकमात्र कर्मही है । ब्रह्मा कर्मसे वँधा हुआ संसारकी रचना करता है, विष्णु कर्म के अधीन पालन करता है, शिव कर्मके अधीन प्रलय करता है। जीवकी प्रकृति व प्रकृतिके तीनों गुणोंका हेरफेर भी कर्मके अधीन ही है। कर्म करके ही जीवको बन्धन है और कर्मके द्वारा ही मोक्ष है । कर्म ही प्रधान है, कर्मसे भिन्न और कोई सार वस्तु संसारमें है ही नहीं
श्रमविलास ]
कर्म प्रधान विश्व करि राखा ।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा ॥ (रामायण)
ऐसा जो मुख्य व सार वस्तु कर्म है, उसका स्वरूप जानना चाहिये । इसलिये इस विपयमे कुछ विचार किया जाता है ।
सामान्य रूपसे किसी प्रकारकी क्रिया, चेष्टा और हिलनचलन आदि स्पन्दरूप गति या परिणामका नाम कर्म है। न्यायमतमें गुण, कर्म, द्रव्य, समवाय, सामान्य, विशेष और प्रभाव, इन मुख्य सात पदार्थों
कर्मकी व्याख्या