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[ साधारण धर्म ': शारीरिक चिकित्साकार इस विपयकी भली-भॉति साक्षी वैगे। शारीरिक प्रकृतिका यह स्वाभाविक नियम है कि मलमूत्रादि विकार तथा वात, पित्त व कफादि दोष जब शरीरमे प्रकृतिविरुद्ध चेष्टाओंद्वारा दूषित होजाते हैं, तब प्रकृति स्वभाव से ही उन बढ़े-चढ़े दोपोंको निकाल फेंकनेका प्रयत्न करती है। चर, अतिसार आदि अनेक रोग इसी नियमके अनुसार प्रकट होते हैं। पित्तको वृद्धि वर्षा-ऋतुमे होती है तब मलेरियाब्वरद्वारा उम पित्तका प्रकोप बाहर निकाला जाता है । अजीर्ण की वृद्धि होनेपर जव मल दूपित हो जाता है, तब उसके वेगको अतिमारद्वारा बाहर निकालनेका मार्ग खोला जाता है। रक्त दूषित होना है तो फोड़े-फुन्सी श्रादि चर्मरोगद्वारा उसके वेग को बाहर फैंका जाता है। ठीक, यही अवस्था मानसिक प्रकृति की है। पामर और विषयी पुरुषोंमें जब मनोविकारकी वृद्धि होती है तव प्रकृतिदेवी प्रथम तो अन्दरसे उस वढ़े चढ़े विकार को क्रमशः निषिद्ध प्रवृत्ति व सकाम प्रवृत्तिद्वारा निकाल फेंकने का यत्न करती है, दूसरे वाहरसे उन निषिद्ध कोंके फलस्व. रूप समस्त संसारको उनके विरुद्ध सशस्त्र खड़ा कर देती है
और तीसरे 'हमको सुख मिले' यह तीव्र इच्छाम्प वैताल उनके सिरपर चढ़कर उनकी गर्दन दवाता है । इस प्रकार अन्दर, वाहर और ऊपर सभी ओरसे प्रकृति उनके बढ़े-चढ़े मनोविकारोंको निवृत्त करनेके पीछे पड़ी हुई है। यही कर्मकी अनर्गल प्रवृत्तिद्वारा भी प्रकृतिकी निवृत्तिमुखीनताका स्पष्ट प्रमाण है।
कषायपक्तिः कर्माणि ज्ञान तु परमा गतिः । कपाये कर्भभि पक्वे ततो ज्ञान प्रवर्तते ।।
(सून भाष्य ३,४,२६)