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[साधारण धर्म पुरुपने विचारपूर्वक फलाशासे पल्ला छुड़ा लिया है वही घास्तवमें उदारान्मा और धनी है, चाहे उसे पेटभर रोटी भी न मिलती हो। फलाशा-त्यागसे शक्ति व उत्साह फूट निकलते हैं और हमारा कार्यक्षेत्र विशाल हो जाता है । इसमें तत्त्व यह है कि फलाशा बनाये रखकर अकारको दृढ़ता करके हम अपनी शकिको घटाकर अपने शरीरतक ही परिच्छिन्न बना लेते हैं, परन्तु स्वार्थ व फलाश त्यागद्वारा अहंकारसे ऊँचे उठकर हम ब्रह्माण्ड-शक्तिपर भी अपना अधिकार जमा लेते हैं । ऐसी अवस्थामें ईश्वरीय-शक्ति ही हमारी अपनी शक्ति होती है
और हमारा कार्य ईश्वरीय कार्य होता है तब शक्तिका स्रोत इसी प्रकार हमारे अन्दरसे फूट निकलता है जैसे किसी चश्मे से पानी उमल-उमलकर महानदके रूपमें वह निकलता है। वास्तवमे जो शक्ति हमारे हृदयमें विराजमान है वह अनन्त व असीम है, परन्तु परिच्छिन्न अहंकार व कर्मफलका ढक्कन दवाकर हम उस शक्तिको वह निकलनेसे रोक देते हैं। फत की इच्छा हमारे अन्दर थकान उत्पन्न कर देती है और फलाशा-त्यागद्वारा हमारी चेष्टाएँ अथक बन जाती हैं, प्रकृति का यही नियम है। दृष्टान्तरूपसे समझ सकते हैं कि चिउँटी च दीमक आदि योनियोंमे दिनरात, आठौं प्रहर, चौसठ घड़ी अविराम चेष्टाएँ देखने में आती हैं वे अपनी चेष्टाओं से कभी नहीं थकती और न कभी विश्राम लेती हैं। इसका कारण क्या है ? कारण यही है कि न उनमे कामाव जागृत है, न वे किसा फलकी इच्छा धारकर कर्म करती हैं, वल्कि किसी प्रकारको इच्छा विना कर्मके लिये ही कर्म कर रही हैं और भगवान्के इस वचनको यथार्थ रूपसे न्यवहारमे ला रही हैं: