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[ साधारण धर्म बल्कि परमार्थको ही इमने स्वार्थ रूपसे अपना लिया है। अर्थात् ईश्वरप्राप्तिरूप परमार्थ ही इसका केवल स्वार्थ है और अब इसकी सम्पूर्ण दौड़धूप इसी निमित्त है। वास्तवमें वात वो है यू कि फलको इच्छा रजोगुणका परिणाम होनेके कारण कर्ताको फलसे विमुख ही करती है, क्योंकि रजोगुण चञ्चल रूप है इसलिये रजोगुणकी उपस्थितिमें फलकी प्राप्ति असम्भव है। फलकी प्राप्ति सदैव उसी अवस्था में होती है, जब कि हमारा चित्त रजोगुणसे निकलकर सत्त्वगुणको धार रहा हो । जब-जब जिस किसीको किसी फलकी प्राप्ति हुई है, यदि ठीक उस समयकी अपने चित्तकी अवस्थापर किसी पक्षपात के विना ध्यान दिया जाय तो प्रत्येक व्यक्ति स्वानुभवसे इस विषयको साक्षी देगा कि जब-जब चिच फलकी इच्छा करके चञ्चलवासे पूर्ण रहा है तब-तव खोया गया है और अब फलाशा से निराश होकर चलवासे छूटकर देव-इच्छापर निर्भर हुश्रा है तव-तव ही सफलता हुई है। दृष्टान्तरूप से समझा जा सकता है कि यदि कोई वरल पदार्थ किसी सॅकड़े मुंहके वरवन में डालना इष्ट है और पदार्थको उस बरतनमें उलटते समय यदि हमारे चित्तमें चञ्चलता व भय है तो अवश्य हाथ हिल जायगा और वह नीचे गिर जायगा । इसके विपरीत यदि हमारा चिच चञ्चलवासे रहित और निर्मय है तो एक बूंद भी बाहर नहीं गिर सकती। इसी प्रकार रजोगुणकी विद्यमानतामें असफलता और सत्त्वगुणकी विद्यमानतामें सफलता प्राप्त होती है। इसमें रहस्य यह है कि फलाशाद्वारा रजोगुण व चञ्चलता करके मनुष्य हलका व दीन हो जाता है, इसलिये सफलता निकट
आई हुई भी उसको पीठ दिखा जाती है, क्योंकि दीनताके कारण उसमें आकर्षण शक्ति लुप्त हो जाती है। फलाशा-त्यागद्वारा सत्त्वगुणकी उपस्थितिमें मनुष्य भारी भरकम रहता है और