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आत्मविलास ]
[१३८ की प्राढत नहीं होती अर्थात् जो मन-बुद्विकी जानकारीमें नहीं हो रही हैं वे करुम भी नहीं होती, क्योकि वे किमी भाव को उत्पन्न नहीं करती और न वासना तथा संस्कारकी ही जनक होती हैं। इसलिये न तो वर्तमानमें किसी सुग्य-दुःखके भोगकी हेतु होती हैं और न भविष्यमै पुण्य-पापरूप संस्कारोंको हो उत्पन्न करती है । शरीरके भीतर भोजन ग्यानके पश्चात् उम खाद्यके रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा व वीर्य आदि धातु बनने तक न जाने कितने असंख्य परिणाम होते होंगे, परन्तु वे मव परिणाम मनबुद्धिकी आढ़नमे नहीं होते इमलिये ने कर्मझी वास्तविक व्याख्यामे भी नहीं आते । परन्तु सोना-जागना कर्म है, चलना-फिरना कर्म है, बोलना-मौन रहना कर्म है, ग्रहण-त्याग कर्म है, मन्यास व भिना मॉगना कर्म है, विवेक, वैराग्य, सम, दम, श्रद्धा, समाधान, तितिक्षा, उपरति व मुमुक्षुता फर्म है, श्रवणमनन-निदिध्यासन कर्म है, विचार कर्म है तथा यम, नियम, श्रासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि कम है। सारांश, प्रत्येक प्रवृत्ति और प्रत्येक निवृत्ति कर्म है तथा गीतोक्त सांख्ययोग व कर्मयोग भी कर्म है। ऐसा क्यों ? इसीलिये कि वे सब चेष्टाएँ मन-बुद्धिके साक्षात् परिणाम हैं अथवा मन-बुद्धिकी आढ़तमें होता हैं, इसलिये वे भावको उत्पन्न करती है और अपना फल रखती हैं।
। कमेकी उपयुक्त व्याख्याको ध्यानमे रखकर कहना धर्मकी अनिवार्यता पड़ेगा कि कर्म सर्वथा अनिवार्य है।
जवकि कर्मका त्याग भी कर्म सिद्ध हुआ तव प्रकृतिके राज्यमें किसी प्रकार कर्मसे छुटकारा है ही नहीं। वास्तव में विचार करके देखिये तो अधिकारानुसार कर्मका आचरण करते-करते प्रकृतिके वन्धनसे छूटकारा भी कर्मके द्वारा ही हो सकता है। स्वकर्मके प्रवाहमे पड़ा हुआ ही यह जीव ब्रह्म
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