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आत्मविलास]
[ १४० न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य ास्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।। यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ नियतं कुरु कर्म व कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ।।
अर्थ:-किसी भी प्रकार कर्मका स्वरूपसे त्याग अशक्य है इसलिये भगवान् कहते हैं।-पुरुष कर्म न करनेसे न तो निष्कर्मताको प्राप्त होता है और न कर्म के त्यागसे ही उसे भगवत् साक्षात्काररूप सिद्धि मिलती है। तथा किसी क्षणके लिये कोई भी पुरुष विना कर्मके स्थित नहीं रह सकता, बल्कि प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणोंद्वारा वरवश यह जीव कर्म करता ही रहता है। (जब कर्म ऐसा बलवान् और अनिवार्य है तो) कर्म-इन्द्रियों को रोककर जो मनसे भोगोंका चिन्तन करता रहता है, वह तो मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी ही कहा जाता है । हे अर्जुन ! जो पुरुप मनसे इन्द्रियोंको वशमै करके अनासक्त हुश्रा कर्म-इन्द्रियों से कर्मयोग (अर्थात् फलाशारहित कर्म) का श्राचरण करता
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१ कर्म करके भी कर्मके बन्धनमें न आना, जैसे कमल जल में रहकर भी जलसे लेपायमान नहीं होता, ऐसी अवस्थाका नाम ' निर्मता' है।