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[साधारण धर्म सी समुद्र में मिलकर ब्रह्मरूप हानेका जुम्मेवार है। यही कर्मका 'मल है, यहाँ पहुँचकर ही कर्म पर्यवसानको प्राप्त होते हैं और जीपको अपने बन्धनसे छुटकारा देते हैं । जबतक तत्त्वसाक्षात्कारद्वारा इन ज्ञानोके कर्न अकर्मता (नष्कयंता) को प्रात न हो जाए, कर्तव्यरूपी वैताल कि 'मैं दुखी हूँ और मुझको सुख मिले कदापि इसका पीछा नहीं छोड़ सकता और इस कर्तव्यसे मुक्त हो जाना यही स्वफर्मरूपी पनकी पूर्णाहुति है। इसके विपरीत अधिकारभिन्न कम ही इस जीवके बन्धनका हेतु है। अपने विपरीत आचरणद्वारा ही यह जी र कर्मवन्धनसे इसी प्रकार मटकता फिरता है और इसकी वही गति होती है जो श्रॉधीमें पड़े हुए एक सूत्रे तृणकी। इसलिये कर्मका प्रवाह यदि शुभ मार्गकी ओर खोल दिया जाय तो अशुभकी ओर इसका प्रवाह स्वतः रुक जायगा और यदि शुभकी ओर प्रवाह वन्द कर देंगे तो अशुभकी ओर इसका प्रवाह यरवश खुल जायगा,
आखिर यह प्रवाह रुकनेका तो है ही नहीं। जिस प्रकार जल का प्रवाह यदि सीधे मार्ग चलनेसे रोक दिया जाय तो वह अपने निकासना मार्ग ,किसी और तरफको वरवश अपने आप दीवारातोडकर भी निकाल लेगा, वह रुक नहीं सकता। इसी प्रकार जब कि प्रकृतिके राज्यमें कर्मका प्रवाह ऐसा बलवान
और अनिवार्य है तो इसको प्रकृति के अनुकूल सीधा मार्ग ही क्यो न दिया जाय ? जिससे यह अपनी गतिसे चलता हुआ ब्रह्म घ्पो समुद्र में मिलकर अपने-आप शान्त होजाय । इसी आशयको लक्ष्य करके गीता अ०३ श्लो० ४ से ८ में कहा गया है:
न कर्मणामनारम्भान्नष्कम्य पुरुषोऽश्नुते । न च. संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥