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[ साधारण धर्म तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समावर । असतो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुपः ॥
(गो. १ ३, श्लो. 16) अर्थः- इसलिये तू अनासक्त हुआ कर्तव्य-कर्मका भली प्रकार आचरण कर, आसक्तिरहित कोके आचरण करनेसे पुरुष परमात्माको प्राप्त होता है।
इस प्रकार इन भावुक पुरुपोंके यज्ञ-दान-तपादिक सभी फर्म सत्त्वगुणप्रधान होते हैं, जिनको लक्षण गीता अ. १७ में इस प्रकार किया गया है।
अफलाकांनिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ (पलो :१)
अर्थः-फलकी इच्छारहित पुरुषोंद्वारा शास्त्रविधिक अनुसार जो 'यज्ञ करना मेरा कर्तव्य है। ऐसे मनके निश्चयपूर्वक किया जाय, वह सात्त्विक यज्ञ कहा जाता है।
श्रद्धया परया तप्त तपस्तत्रिविधं वरैः। अफलाकांक्षिभिर्युक्तः सात्विक परिचक्षते ॥ (श्लो १७) . अर्थः - शरीर, मन व वाणी, तोन प्रकारका तप जो परम श्रद्धासे और फलकी इच्छा न रखनेवाले पुरुपोंद्वारा किया जाय, वह सात्त्विक तप कहा गया है। दातव्यमिति यदानं दीयतेऽनुयकारिणे। देशे काले च पात्रे च तदान साविक स्मृतम् ॥ (पलो २०)
अर्थः जो दान देश, काल व पात्रके अनुसार बदले में उपकार ने चाहकर अनुपकारीके प्रति 'दान देना कर्तव्य है। इस दृष्टिने दिया जाय वह सात्त्विक दान है।