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[साधारण धर्म , यतः ‘प्रवृत्तिर्भूतानां येन सवमिदं ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्थ्य सिद्धि विन्दति मानवः ।।
अर्थः-अपने-अपने स्वभाविक कर्ममे लगा हुआ मनुष्य अन्तःकरणकी निर्मलतारूप सिद्धिको प्राप्त होता है, परन्तु जिस प्रकार अपने स्वभाविक कर्ममें लगा हुआ मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हावा है उस विधिको तू सुन । जिस परमात्मासे सब भूतोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सब जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वर को अपने स्वभाविक कर्मद्वारा पूजकर ही मनुष्य उस सिद्धिको प्राप्त हो सकता है।
जिस प्रकार राजाके अनेक कर्मचारी उसकी प्रजाकी अपनेअपने अधिकारके अनुसार सेवा करते हुए भी राजाकी ही सेवा करते होते हैं। अर्थात् जैसे तहसीलदार प्रजाकी भूमिकी रक्षा करता है, . पुलिस कर्मचारी प्रजाके जानमालकी रक्षा करते है और मेडीकल-आफिसर प्रजाके स्वास्थ्य की रक्षा करता है, इत्यादि । अपने-अपने अधिकारके अनुसार प्रजाकी भूमि-रक्षा, जानमाल-रक्षा और स्वास्थ्य-रक्षा करते हुए भी वे अपने आपको राजाकी ही सेवा करनेवाले मानते हैं। यद्यपि उनको वेतन भी प्रजाके करद्वारा ही मिल रहा है, तथापि वे वेतन भी राजासे ही प्राप्त हुआ जानते हैं। इस प्रकार प्रजाको सेवा करके तथा प्रजासे वेतन पाकर भी वे अपना मीधा सम्बन्ध राजासे हो जोड़ते हैं। ठीक, इसी प्रकार यह निष्काम-जिज्ञासु भी कुटुम्ब-सेवा, जाति-सेवा देश-सेवा तथा अन्य प्रकारसे अन्न-वस्त्रादिका व्यवसाय करता हुआ भी उपयुक्त निष्काम-भावके प्रभावसे ईश्वरसेवा ही करता होता है तथा अन्तःकरणकी निर्मलताद्वारा अपने व्यक्तिगत ममत्वस छूटा हुआ ईश्वरीय कुटुम्ब, जाति व देशकी ही सेवा करता होता है। इस प्रकार अपने व्यवसायद्वारा भी कमसरेटके