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श्रमविलास 7
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अहकार से पल्ला छुड़ा लेना है और यही मोजका हेतु है । यद्यपि यह परम उच्चभाव साधनचतुष्टय-सम्पन्न होकर जीव नालके भेट-साक्षात्कारद्वारा ही fast Hear है, तथापि इस निष्काम भाव के जिज्ञासुकी अवस्था यह वर्तुत्य प्रकार तथा कर्मफल जो पामर व विपयी इशाने पत्थरके ममान ठोस व ढ़ चना हुआ चला आ रहा था, भावके परिवर्तन करके व शिथिल किया जाता है। जिस प्रकार पीपलका वृद्ध, जिसकी जड़े चहुँ ओर पृथ्वी फैलकर होगई है, यदि इस वृक्षको ममूल निकाल फेंकना मजर है तो पहले यह जरूरी है कि इसके चारों तरफसे आसपास की मिट्टी खोदकर उसकी दबी हुई जड़े निकाल ली जाएँ, फिर ही उसकी जड़ों पर कुल्हाड़ा चलाकर उसको मूलसहित निकाला जा सकता है। ठीक इसी प्रकार अहंकाररूपी वृक्ष जो हृदय क्षेत्र मे हद हो रहा है और जिसकी जड़ें पाताल तक फैल गई हैं, यदि इसको समूल निकालना इष्ट है तो प्रथम निष्काम कर्मरूपी कुशलीसे इसकी जड़ोंको स्पष्ट कर लेना चाहिये, तदन्तर ही ज्ञानरूपी कुल्हाड़ेसे इसकी जड़े काटी जा सकती हैं, अन्यथा इसको निर्मूल नहीं किया जा सकता ।
उपर्युक्त आशय से इस जज्ञासुके सभी कर्म ईश्वर के नाते निष्काम कर्मका उपयोग | से होते हैं और अपने अधिकारके कर्मोंद्वारा वह ईश्वरकी ही पूजा करता होता
म स्वरूप
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। जैसा गीता
१८ श्लो ४५, ४६ मे कहा गया है.
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स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः । स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥
१- साधन-चतुष्टयके नाम - विवेक वैराग्य, शमादि पटूसम्पत्ति, मुमुक्षुता