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[ साधारण धर्म वनता है। विचारसे जाना जाता है कि कामे कत्व-अहंकार तथा कर्म-फलकी इच्छा ही उसके वन्धनके हेतु हो सकते हैं, चाहे वे शुभ हों अथवा अशुम । 'मैं कर्मका कर्ता हूँ और इस कर्मके द्वारा मुझको अमुक फलकी प्राप्ति हो' यह भाव ही जीवके बन्धन का हेतु है। इस भावसे किये गये यज-दान-तपादि भी जीवके बन्धनके हेतु होते हैं और उसे पुण्य-संस्कारद्वारा सुखभोगके लिये शरीरके बन्धनमें लाये विना नहीं छोडते । इस प्रकार अपरिच्छिन्नको परिच्छिन-शरीरका बन्धन, चाहे वह सुखभोग के लिये ही हो, मूलमे.क्षय-अतिशयादि दोपोंसे प्रसा हुआ होनेके कारण जैसा पोछे स्पष्ट किया जा चुका है, दु.खरूप स्वतः ही बन जाता है। मैं कर्मका कर्ता नहीं, किन्तु प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही सब चेष्टाएँ हो रही हैं। केवल यह भाव ही यथार्थ रूपसे अपने आचरणमें आया हुआ जीवके मोक्षका हेतु होता है। यथा:प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते । तत्त्ववित्त महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।
(गी. अ ३ लो. २७, २८) अर्थः-वास्तवमें सम्पूर्ण कर्म प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं तो भी अहंकारसे मोहित हुए अन्तःकरणवाला पुरुप 'मैं कर्ता हूँ ऐसा मान लेता है, यही बन्धन है। परन्तु हे महावाहो! गुण-विभाग व कर्म-विभागके तत्त्वको जाननेवाला ज्ञानी पुरुष सम्पूर्ण गुण ही अपने गुणोंमें वर्तते हैं (मैं कुछ नहीं करता), ऐसा मानकर आसक्त नहीं होता।
- इस प्रकार तत्त्व-दृष्टिद्वारा प्रकृतिके गुण व कर्मविभागसे अपने आत्माको सम्यक् प्रकार भिन्न कर लेना ही कर्तृत्व