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[ साधारण धर्म
भावका महत्व
जहॉ क्रिया चेष्टा है वहाँ रजोगुणका होना स्वभाविक है, रजोगुणके बिना किसी प्रकारका हिलन चलन ही असम्भव है । यद्यपि इस अवस्थामें क्रिया व चेष्टाएँ किसी प्रकार घटाई नहीं जाती, बल्कि चेष्टाओं में वृद्धि ही देखने आती है; तथापि भात्रको विलक्षणताद्वारा वे सब रूप बन जाती हैं और रजोगुणकी अपेक्षा सत्त्वगुणप्रधान होती हैं तथा वन्धनका हेतु न रहकर मोक्षका हेतु होती हैं । भावका ऐसा ही रूप महत्व है। कर्म यद्यपि अपने स्वरूपसे सदोष है चाहे शुभ हो या अशुभ, क्योंकि वह पुण्यपापरूप संस्कारद्वारा अपना सुख-दुःख फल भुगाने के लिये कर्ता को वरवश शरीररूपो कारागारमें बन्धन करता है । ययाः
त्याज्यं दोपवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ॥ गी. . १८, २
अर्थात् कई एक विद्धान् ऐसा कहते हैं कि सभी कर्म सदोष हैं, इसलिये वे त्यागने योग्य हैं। तथापि कर्म अपने स्वरूप से जड़ है, जड़ वस्तु जीवको वन्धन करनेकी सामर्थ्य नहीं । साथ ही प्रकृतिका यह नियम है कि बाहरके कोई पदार्थ धन, पुत्र, स्त्री आदि अपने स्वरूपसे जीवको बन्धन नहीं कर सकते, केवल अपना आसक्ति व ममतारूप भाव ही अपने वन्धनका हेतु होता है। वास्तव मे धनादिक पदार्थ वन्धनरूप नहीं, बल्कि इन पदार्थोंके साथ अपना ममत्वभाव ही अपने को बन्धन करता है । जो वस्तु (अर्थात् जीव ) बन्धनके योग्य है उलका बन्धन के साथ संयोग सम्वन्ध आवश्यक है, इसलिये वन्धनका भी वहीं होना जरूरी है जहॉ बन्धनयोग्य वस्तु है । बन्धनयोग्य जीव अन्तर है पदार्थ व कर्म वाह्य हैं, जीव चेतन है पदार्थ व कर्म जड़ हैं । इसलिये जड़ तथा बाह्य पदार्थ चेतन तथा अन्त:स्थित जीवको किसी प्रकार बन्धनको सामर्थ्य नहीं रखते । '
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