________________
१२७ ]
[ साधारण धर्म
अग्रसर करनेमे उतावली होने लगी। इस प्रकार आनन्दकी घटक व इस जीवको इम अवस्थापर भी बहुत काल टिकने न दिया और इसे शुभ सकाम भाव से निकालकर निष्काम भाव में तथा विपयी कोटिसे निकालकर जिज्ञासु कोटिमें इसका डेरा जा लगाया और त्यागकी चोथी भेट वैतालके चरणोंमें रखवादी । त्यागकी भेटे पूर्व अवस्थामे वरवश उसको रखनी पड़ती थीं, परन्तु अब वे वैतालपर न्यौछावर करके अपने उत्साह व प्रेमसे रखी जाने लगीं ।
[३] निष्काम कर्म जिज्ञासु
त्यागकी चतुर्थ भेटका आशय यह है कि जहाँ शुभ चतुर्थ भेट और निष्काम | सकामभावकी अवस्था में अपने और जिज्ञासुका स्वरूप 1 अपने संसर्गमे आनेवालोंके स्वार्थीको समान भाव से देखा जाता था, वहाँ इस व्यवस्थापर पहुॅचकर जिज्ञासुका अपना निजी व्यक्तिगत संसारसम्बन्धी कोई स्वार्थ ही शेष नहीं रहता । उसकी दृष्टि व्यापक होगई है अव वह घरबार, कुटुम्ब परिवार, शरीरतकको भी अपने व्यक्तिगत नावेसे महरा नहीं करना, किन्तु अपने संसर्ग में आनेवाले समस्व पदार्थों को केवल ईश्वरके नातेसे ग्रहण करता है । पूर्व अवस्थामें कुटुम्ब परिवार आदि समस्त पदार्थ 'यह मेरे शरीर के सम्बन्धी हैं और मेरे हैं। इस भाव से ग्रहण होते थे । अव वही पढार्थ 'यह सब मेरे ईश्वरके हैं और मैं भी उसीका हॅू क्योंकि यह मेरे ईश्वरके है इसलिये मेरे हैं। इस भावसे ग्रहण होते हैं। जिस प्रकार एक गोपाल अपने स्वामीकी गौवोंके प्रति ममत्वका सम्बन्ध जोड़ता है। जब वह जंगलमें गौवाको चराने जाता है, अपने अधिकार में पाई हुई गौवोंकी सेवाके निमित्त दूसरे गोपालोंसे झगड़ा भी ठानता है, 'तूने मेरी यौको लाठी क्यों
--
'