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श्रात्मविलास ]
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मारी १ तेरी गौने मेरी गौको मींग क्यों मार दिया ? इत्यादि शब्दों के व्यवहार का प्रयोग करते हुए भी चित्तसे वह उनसे अपना ममत्व नहीं मानता। उनके प्रति अपना काल्पनिक ममत्व जोड़ते हुए भी वास्तवमे चिनले प्रपने स्वामीका ही ममत्व स्थिर रखता है और इन प्रकार गोपालन व्यवहारके द्वारा भी वास्तवमे वह स्वामीकी सेवा ही करना होता है। ठीक यही भाव इस भावुकका 'ममत्व' शब्द से अपने अधिकार में पाये हुए पदार्थों के प्रति चित्तसे दृढ़ होता है । यद्यपि उसके द्वारा धनोपार्लन, कुटुम्न सेवा, जाति- सेवा, देश-सेवा उत्यादि अनेक चेष्टाएँ प्रकट होती हैं, परन्तु उन सब चेाश्रांद्वारा वास्तवने वह ईश्वरसेवा ही करता होता है । सकामी पुरुषोकी बुद्धि भिन्न-भिन्न चेष्टाश्रमे भिन्न-भिन्न लक्ष्यको धारण करनेवाली होती थी, कभी धनमे सुख दूँढने लगे तो कमी पुत्रमे, कभी खोमे सुख हूँ ढा तो कभी मानमे, कभी बाग वगीचे, घोड़े-गाड़ीमे मुख बटोरने लगे तो कभी राज्यसन्मानमें। इस प्रकार उनकी बुद्धि बहुशाखावाली बनकर 'तवेसे उतरे तो चूल्हेमे गिरे का मामला वन रहा था। परन्तु इस अवस्था पर पहुँचकर इस निष्कामीकी बुद्धिका लक्ष्य अपनी सब चेाचद्वारा एकमात्र ईश्वरसेवा व ईश्वरप्राप्ति ही घना रहता है और इपीको व्यवसायात्मिका बुद्धि कहते हैं:
यथाः
व्यवसायात्मिका
बहुशाखा धनन्ताश्च
बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥
गी, २ श्री ४१०
अर्थः- हे अर्जुन इस कल्याण मार्ग में निश्चयात्मिकाबुद्धि एक ही है और अनिश्चित सकामी-पुरुषोंकी बुद्धियाँ बहुत भेदोंवाली एवं अनन्त होती हैं।