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श्रात्मविलास]
[ १३४ गुमाश्तेकी भॉति ईश्वरीय प्रजाको ही अन्न-वस्त्रादिकी सप्लाई (Supply) करता होता है और अपनी सब चेष्टाओंद्वारा ईश्वरीय सेवा करते हुए जो कुछ अनिच्छित प्राप्त होता है, वह भगवान्के द्वारा ही आया हुआ जानकर ग्रहण करता है तथा केवल अन्न-वस्त्र ही अपना वेतन मानकर शेप द्न्य उसके कुटुम्ब के पोषणमें ही लगाता है। इस प्रकार किसी वस्तुपर ममता नहीं करता, यही गीतोक्त स्वकर्मद्वारा ईश्वरीय पूजा है।
एवं प्रवर्तितं चक्र नानुवर्तयतोह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जोवति ॥
(गी भ. ३, १६) अर्थ:-हे पार्थ । जो पुरुप इस लोकमें इस प्रकार चलाये हुए सृष्टिचक्रके अनुसार नहीं वर्तता, अर्थात् अपने स्वभाविक कर्माद्वारा ईश्वरसेवा नहीं करता वह केवल इन्द्रियोंके सुखको भोगनेवाला पाप-श्रायु-पुरूष व्यर्थ ही जीता है।
इस प्रकार निप्काम-भावसे ईश्वरीय आजा मानकर संसार-चक्रको चलानेके लिये जो चेष्टाएँ धारण की जाती हैं, वे ही वास्तवमै यज्ञार्थ कर्म होती हैं और वे ही अपने फलके बन्धनसे इस जीवको मुक्त करनेवाली होती हैं, यथा
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥
(गी. अ ३, श्लो. ८) अर्थः-ईश्वरनिमित्त कर्मके सिवाय अन्य कर्ममे लगा हुआ ही यह पुरुष कर्मद्वारा बॅधता है, इस लिये हे अर्जुन ! आसक्ति से रहित होकर तू ईश्वरनित्ति कर्मका भली प्रकार आचरण कर।