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श्रामविलास ]
[१२६ परलोकके सुखोंको वेचकर भी अपना स्वाव मिद्ध न कर पाते थे,वहाँ यह महाशय अनायास ही अपने स्वार्थोंको सिद्ध कर जाते हैं। साथ ही यह संसारके लिये सन्तोपम्प और अपने इस लोक व परलोकके लिये शान्तरूप ठहरते हैं। कैसा आश्चर्यरूप श्राकाश-पाताल जैसा अन्तर है।
जिस प्रकार कुटिला व इच्छाचारिणी ली जब अपने पति की आत्राविरुद्ध मनमानी चेष्टाओमे प्रवृत्त होती है, तब पति उसके लिये विकरालरूप धारकर उसके दारण दुःखका हेतु होता है और पतिद्वारा प्राप्त की हुई वेदनाको न सहकर जब यह अवला पतिके अनुकूल वर्तने लगती है, तब वही पति उसके लिये परम प्रेमका हेतु हो जाता है। ठीक, इसी प्रकार प्राकृतिक नीतिके साथ जीवका पति-पत्निके समान घनिष्ठ सम्बन्ध है । पामर जीव जो नीतिके विरुद्ध मनमुखी रहकर इच्छाचारी रहते हैं, उनके लिये प्रकृति भैरवरूप धारकर अपने त्रितापरूपी त्रिशूलसे उनके हृदयोंको विदीर्ण करती रहती है। उस समय वे चोटे ही जीवको नीचेसे ऊपर उठानेमें सहकारी होती हैं और जब जीव उन चोटोंको न सहकर कमसे उपर्युक्त नीतिके अनुसारी होता हुआ शुमसकाम-भावकी उपयुक्त अवस्था पर पहुँचकर नीति के अनुकूल बन जाता है तब वही नीति उस जीवके लिये भैरवरूप त्यागकर सुन्दर चित्त-चोर अपनी घॉकी छविसे मनको हरनेवाली कन्हैयाकी मॉकीके रूपमें दर्शन देती है, अर्थात् परम प्रेमका हेतु हो जाती है। नीचेकी अवस्थाओंमे हृदयकी दारुण वेदना ही जीवको क्रम-क्रमसे ऊँचा उठानेमें हेतु रही है और त्यागकी भेंट वैतालके चरणों पर रखवाती रही है, परन्तु उसको बजाय इस अवस्थापर पहुँचकर जीवके हृदयमे जो यत्किञ्चित आनन्दकी लहर उत्पन्न होने लगी वह आनन्दकी चटक ही अब इत्तको श्रेयपथ में