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[ साधारण धर्म हाकिम हैं तो अपने महकमो स्वाथोंका, आप राजा हैं तो अपनी प्रजाके स्वार्थोका उतना ही ध्यान रखे, जितना आप अपने निजी स्वार्थीका ध्यान रखते हैं। परस्पर आपके और उन के स्वाकी एकता विना किसी भेदभाव स्थिर होनी चाहिये । Fष्टांत स्थलपर इस विषयको यूं समझा जा सकता है कि 'हाथ' यदि यह विचार करे कि 'अपने परिश्रमसे कमाई तो मैं कर और समन शरीर मेरी कमाईका भागी वन जाय, ऐसा क्यों हो? मैं तो अपनी कमाईसे अपने आपको ही पुष्ट करुंगा' तो ऐसी अवस्थामै 'हाथ' के लिये अपने विचारो को सिद्ध करनेका एकमात्र साधन यही होगा कि वह अपना भोजन पेटको न देकर और छरीसे चीरकर अपने भीतर प्रवेश करले । इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं बन पडता "जिससे उसका मनोरथ लिद्ध हो सके ! परन्तु क्या इस युक्तिसे हाथ पुष्ट हो जायगा ? हरगिज नहीं। यह तो मोटाई नहीं, सूजन है; यह तो पुष्टि नहीं, उल्टा रोग है। मोटा होनेके लिये एकमात्र साधन हाथके लिये यही है कि वह अपना भोजन पेट को दे और पेट उसको पचाकर उसका रस शरीरके सब अड्डोमे समान भागमे पहुँचा दे और सब अौकी पुष्टिके साथसाथ हाथ भी पुष्ट होजाय । इसके सिवाय और कोई उपाय उसके लिये अपने मनोरथको सिद्धिके निमित्त नहीं वन पड़ता। इसी प्रकार अपने संसर्गियोंके खार्थोंको बनाकर ही आप अपना स्वार्थ बना सकते हैं। इस टिपर पहुंचते हो जहाँ आप अपने संसर्गमें पानेवालोंका स्वार्थ सिद्ध करनेमें तत्पर हांगे, वहाँ आपका अपना स्वार्थ तो विना किसी बाधाके और * विना कष्टके अपने-बाप सिद्ध हो जायगा, । प्रकृतिका ऐसा ही सुन्दर नियम है। पामरपुरुष जहाँ दूसरोंके स्वार्थोकी कॉटलॉट करके, अपने तन-मनकी आहुति देकर एच इस लोक तथा