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आत्मविलास]
[ १३० किन्तु अन्त स्थित जो काकी बुद्धिका भाष जिसके द्वारा कर्ताका कर्म व पदार्थसे सम्बन्ध है, उस अपने भावद्वारा ही जीवको वाह्य पदार्थोंसे वन्धन है। श्रासक्तिरूप व अनासक्तिरूप वह भाव ही जीवके वन्ध व मोक्षका हेतु होता है। अर्थात् जिन पुरुषोकी इन वाह्य पदार्थाम
आसक्ति है वे अपने भावद्वारा इन पदार्थोंसे बन्धायमान होते हैं, परन्तु जिन पुरुपोंकी इन पदार्थोंमें आसक्ति नहीं वे अपने अनासक्त भाषद्वारा इनसे वधायमान न होकर मोक्षके अधिकारी होते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि अपना भाव ही अपने बन्ध व मोक्षका हेतु है, बाह्य पदार्थ व जड़ कम वन्ध-मोक्षका हेतु नहीं। इसीलिये कहा गया है:'अात्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः' (गी. अ.६, ५) ___अर्थात् अपना-पापा ही अपना मित्र है और अपना-आपा ही अपना शत्रु । वाहरके कोई पदार्थ हमारे शत्रु वा मित्र नहीं हो सकते, अपने भावको परिवर्तन करके शत्रुको मित्र और मित्र को शत्रु बनाया जा सकता है। इतना ही नहीं, बल्कि यह अनहुआ अनादि-ब्रह्माण्ड केवल अपने कतत्व-भावके प्रभाव करके ही अपने सम्मुख खड़ा कर लिया गया है, जिसने 'मैं और हूँ वह और है' की भेद भावना करके नाकमे दम कर दिया है। परन्तु जब यह शिव-शम्भू अपना ज्ञानरूपी तृतीय नेत्र खोलकर 'सव मैं ही हूँ' की अभेद-भावना करके सब कामनाओंको भस्म कर देता है, तव यह दुःखरूप संसार भी नित्यानन्दरूपमे वदल दिया जाता है । भावराज्यका ऐसा ही विलक्षण महत्व है।
इससे सिद्ध हुआ कि कर्ताकी बुद्धिका भाव ही उसके बन्ध धन्ध व मोक्षहेतुक तथा मोक्षका हेतु होता है, जड़ कर्म बन्धभावका स्वरूप | मोक्षका हेतु नहीं। अब देखना यह है कि
भाव किस रूपसे कोके वन्ध वथा मोक्षका हेतु
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