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[ साधारण धर्म जाता था। द्रौपदी और पाण्डव ऊपर बैठे देखकर हँसे कि अच्छा अन्धेके अन्धा पैदा हुआ। दुर्योधनको बड़ी लज्जा आई
और वह अपने घरको लौट गया। ठीक, यही अवस्था इस संसाररूपी यज्ञशालाकी है जो मायापतिने अपनी माया से अपने विनोदके लिये रची है। बहिर्मुखी जीवरूप-दुर्योधनः इसको सत्य जान, सुखमे दुःख और दुःखमें सुख-बुद्धिकी विपरीत भावनासे कहीं धमसे गिरता हुआ और कहीं पड़ाक से सिर फुड़ावा हुआ लज्जित होकर अन्ततः अपने घरको ओर लौटनेकी सोचता है। प्रकृतिका ऐसा ही कठोर नियम है, यह चोटें लगा-लगाकर अपने सीधे मागेपर लाये बिना किसीको नहीं छोड़ती। जो पदार्थ श्वेत माखनके पेड़ेके समान चिकने दिखलाई देते हैं, वास्तवमे कलई (चूने) के गोले निकलते हैं जो खानेवालेकी अंतड़ियोंको फाड़े विना नहीं रहते । हमारा विषयप्रेमी भी उपर्युक्त प्राकृतिक नियमके अनुसार प्यास बुझाने के लिये मृगतृष्णाके जलके पीछे दौड़-दौड़कर कमर तो तोड़ . ही चुका था, परन्तु प्यास तो उल्टी अधिकाधिक बढ़ती ही जाती थी । इधर उपर्युक्त परस्पर विचारोंके परिवर्तनने सोनेपर सुहागेका काम दिया, इन वचनोंसे उसे विश्राम मिला, सुखेच्छु वैतालने इसके घोड़ेकी बागडोर उल्टी मोड़ दी और उसने त्यागकी तीसरी भेट इस रूपमे अपने चरणोंपर रखवाली कि जहाँ वह अपने स्वार्थके अविरोधके साथ-साथ, अर्थात् जिंस हद्द तक उसके स्वार्थमें बाधा न हो उस हदतक, यानि अपने स्वार्थ को मुख्य रखकर दूसरोंके स्गर्थसाधनमे उद्यमी रहता था, उसकी बजाय अव दूसरोंके स्वार्थोंको उसी दृष्टिसे देखने लगा जिस दृष्टिसे वह अपने निजी स्वार्थोंको देखता था। साथ ही जहाँ उसके समी इहलौकिक व पारलौकिक कर्म कामनापूर्ण होते थे, वहाँ पारलौकिक नित्य नैमित्तक कर्म निष्कामभाव