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[साधारण धर्म सकती हूँ। एक परमात्माके सिवाय किसी पदार्थमे चित्त दिया कि अग्निके स्पर्शके समान तत्काल छाला उठा देता है। सारांश, त्यागरूपी शिव-शम्भूने अपने हाथमें त्रितापरूपी त्रिशूल धारण किया हुआ है, अपनेसे विमुखी रागी-जीवोंके हृदयों को वह विदीर्ण किये बिना नहीं छोड़ता। तीन लोक, चौदह भुवन, सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें प्राणीमात्र पर इस महेशका अधिकार है और अपने अनुसारी जीवोंके लिये वह सब कुछ न्यौछावर करनेके लिये हाजिर है। यहॉतक कि साक्षात् अपनी शिवाशक्ति भी उनको सोंप देता है, जोकि उनके अधीन रहकर उनकी सेवा करती रहती है।
पीछे हटो ! अपने घोड़ेकी वागडोर मोड़ो। तुम प्रारम्भ में ही भूल कर आए हो। जिस सड़कसे तुम जा रहे हो, वह तुमको तुम्हारे निर्दिष्ट स्थान (सच्चे सुख) की ओर लेजानेवाली नहीं है। इस मार्गसे चलकर तुम वैतालकी पहेलीको नहीं सुलझा सकते । इससे हमारा यह आशय नहीं कि तुम अभी हमारी तरहसे सर्वत्यागी हो जाओ, परन्तु केवल विषयसुख ही जिसे तुमने अपने जीवनका धेय बनाया है और जिसकी पूर्विमें 'आसुप्तेरामृते' अर्थात् जागनेसे सोनेतक और जन्मसे मरणपर्यन्त तुम लगे हुए हो, यह तुम्हारी भारी भूल है, भोगरूपी कॉचके बदले मनुष्यजन्मरूप चिन्तामणिको हार चैठना है
और मोक्षद्वारमें प्रवेशकर गिर पड़ना है । इस प्रकार तुम' कमी सफलमनोरथ नहीं होने के, दुःखसे छूटने और सुख पानेका यह मार्ग नहीं। इसलिये कमसे कम अपने जीवनका लक्ष्य ठीक-ठीक निश्चित करो। जव तुम्हारा लक्ष्य निश्चितरूपसे कायम हो जायगा, तव अवश्य तुम्हारी गतिमे काफी परिवर्तन होगा।