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आत्मविलास ]
[ १२० यामिमां पुप्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तोति वादिनः ॥ कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्नदाम् । क्रियाविशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति ॥ भोगैश्वर्यप्रसक्तानां वयापहतचेतसाम् । व्यवसायात्मिका वुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।
अर्थ:-हे अर्जुन ! जो अज्ञानी फलश्रुतिम हो प्रीति रखनेवाले, कामनापरायण, 'इससे बढ़कर और कुछ है ही नहीं ऐमा कहनेवाले हैं। वे स्वर्गके भोगपरायण पुरुप जन्मरूप कर्मफलको देनेवाली और भोग ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुत-सी क्रियाओंके विस्तारवाली जिस दिसाऊ शोभायुक्त वाणी को कहते हैं, उस वाणीद्वारा हरे हुए चित्तवाले तथा भोगऐश्वर्यमे आसक्तिचाले उन पुरुपोके अन्तःकरणमे निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती है । अर्थात् स्वर्ग-सुखोंकी महिमा वर्णन करनेवाली पुष्पित-वाणी वेदका अर्थवाद वचन है यथार्थ नहीं, वह अनानियोंका वचन है, ज्ञानियोंका नहीं और उसका फल जन्म व भोग है, मोक्ष नहीं।
पतिव्रता स्त्रीकी भॉति वह परमात्मदेव आपका प्रेम अपने सिवाय अन्य किसी पदार्थपर सौकनके समान सहन नहीं कर सकता। 'सह न सकदी मैं सौकन वरण झांजर ढा झंकार नी'
अर्थात् मैं ही एक अकेली उसकी प्यारी होना चाहती हूँ, उसकी दूसरी स्त्री (सौकन) देखना मैं स्वीकार नहीं कर सकती और न किसी सौकनके झॉजरोंकी झंकार सुनना सहन कर