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आत्मविलास ]
[११८ वर्तमान भी भयसे खाली नहीं। साथ ही ये अतिशयटोपत भी दूपित हैं अर्थात् स्वर्गवामी जीवोंके भोग परस्पर समान नहीं, बल्कि न्यूनाधिक हैं। जिनके भोग अपनेसे न्यून है, उनको देखकर घमण्ड-भैरवके दर्शन होते हैं। जिनके भोग अपने वरापर हैं, उनको देखकर ईपी-भैरवी अपना रूप दिखाती है और जिनके भोग अपनेसे अधिक हैं, उनको देखकर हृदय जलता है। अरे । यहाँ तो घमण्ड, ईपी एवं ताप मभी सेवामें मौजूद हैं, फिर इस स्वर्गको नरक क्या न कहा जाय ? हर! हर !! ऐसे स्वर्गसुखको धिकार है।
यह बात तो स्पष्ट ही है कि जब जीव भोगकामना करके आतुर होता है, उस समय इन्द्रको इन्द्राणीसे, सूकरको सूकरीसे, इन्द्रको अमृतपानसे तथा सूकरको विष्ठासे समान सुख है, कोई विलक्षणता नहीं। बल्कि मूकरको तो पनी योनिरचित विष्ठा व सूकरी ही सुग्बी कर सकते हैं, अमृत घ इन्द्राणी कदापि सुखी नहीं कर सकते और वेग दूर होनेके पीछे न इन्द्राणी ही सुख देती है, न अमत ही। वास्तवमै यदि विचारदृष्टिसे देखा जाय तो विपयोमें कभी भी सुग्व नहीं, जैसा पीछे (पृ ७४ से २२पर) इस विपयको स्पष्ट किया जा चुका है, सुख केवल हृदयको इच्छासे खालो करनेमे है। इन विषयसुखों की ठीक अवस्था वही है जैसे जब तुमको मल-मूत्रत्यागकी शङ्का होती है, तब तुम अपने आपको उस शङ्काके वेगसे चन्चल पाते हो और उस वेगकी निवृत्तिसे अपने आपको स्वस्थ व शान्त अनुभव करते हो। ठीक, यही अवस्था विपयजन्य सुखोंकी है, चाहे वे इस लोकसम्बन्धी हो चाहे स्वर्गसम्बन्धी । विपयों ने वास्तवमें तुमको सुखी नहीं किया, सुख तुमको, मिला है केवल तुम्हारे वेगकी, निवृत्तिद्वारा तुम्हारे अन्तःकरणकी स्थिरता में विषयोंमे सुखबुद्धि केवल भ्रान्ति है। यदि विषयोंमें ही सुख