________________
आत्मविलास ]
[ ११६
भोगे रोगभयं कुले च्युतिमयं वित्ते नृपालाद्भयम् । माने देन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाः भयम् ॥ शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम् । सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवामयम् ।। (भर्तृ शतक) अर्थ यह कि जहाँ पकड़ है, अधिकार है, कब्जा है, वहीं रगढ़-झगड है और भय ही भय है। भोगोंकी पकड़ में रोगका भय है। कुलकी पकड़ने च्युतिका भय है कि कुलकी मर्यादा भङ्ग न हो जाय । धनकी पकड़में राज्यका भय है। मानकी पकड़ में अर्थात् 'हमारा मान बना रहे' दीनतासे भय है कि हमको दीन न होना पड़े । वलकी पकड़में शत्रुसे भय है । रूप-सौन्दर्यमें बुढ़ापेसे भय है। शास्त्रकी पकड़में दूसरेसे वाद-विवादका भय है। गुणकी पकड़में दुष्टोंसे भय है कि वे हमारे गुणांको नष्ट न कर दें और शरीरकी पकड में मृत्युसे भय है । सारांश, पकड़से भय ही भय है, केवल छोड़, त्याग अर्थात् वैराग्य ही अभयरूप जो सब भयसे रहित है।
व तुमको अपने प्रिय पदार्थोंसे भय बना हुआ है, फिर उनके सम्बन्धसे सुख कहाँ ? भय व सुखका तो मेल कदापि वनता ही नहीं, जैसे रात व दिन कभी इकट्ठे नहीं रह सकते । इस प्रकार विषयोंका उपार्जन, रक्षा व नाश अर्थात् आदि, मध्य अन्य तीनों अवस्थाएँ ही सुखशून्य हैं और दुःखसे प्रसी हुई हैं।
धर्म अर्य अरु मोक्ष को, नारि विगार ऐन । सब अनर्थ को मूल लखि, तजे ताहि है चैन ॥१॥