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आत्मविलास ]
। १२२ युधिष्ठिरने राजसूय-यज्ञकी रचना की, जिसमे भगवान् श्रीकृष्ण सुखस्वरूपी वैताल ने अतिथियोंके पादप्रक्षालन और जूठन उठाने के चरणों में स्पा की सेवाका भार स्वयं अपने ऊपर लिया था। की तीसरी भेंट धन्य है । प्रभुके इस आतिथ्यको धन्य है ! फिर जो प्रेमीभक्त आत्मसमर्पण करके उनके द्वारपर अतिथि दनकर आयेगे, उनके लिये तो वे क्या कुछ नहीं करेंगे। अतिथिसेवामें वे प्रमाणपत्र तो प्राप्त कर ही चुके हैं, सनद्याफ्ता तो हैं ही। इधर ये मजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् अथोत् जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं वे मेरे में हैं और मैं उनमें हूँ, यह अपना प्रतिज्ञापत्र भी वे प्रकाशित कर चुके हैं, जो उस कालमें भी मिथ्या नहीं हो सकता जब अग्निकी ज्वाला नीचे की ओर और जलका प्रवाह परकी ओर बहने लग पड़े। कलियुग आदि तो इसको मिथ्या सिद्ध कर ही क्या सकते हैं ? कलियुगके भक्त पड़े कहा करें, आज-कल जमाना ऐसा है वैसा है इत्यादि । भले ही वे कलियुगके गीत गाया करे और अन्धकारमे पड़े घोर निद्रा में खराटे मारा करें, परन्तु भैया ! जिनके सिरपर सफर सवार है उनको निद्राये क्या प्रयोजन ? चलनेवाले तो अपना सफर पूरा कर ही जायेंगे और कलियुगको भी सत्युगमे बदल देंगे । युधिष्ठिरकी उस समाकी रचना ऐसी विचित्रतासे की गई थी कि जहाँ धर्मदृष्टिसे जल प्रतीत होता था, वास्तवमें वहाँ भीत होती थी और जहाँ चर्मचनुका विष्य भीत होती थी, वहाँ वास्तवमें जल होता था। दुर्योधन इस यज्ञशालाको देखने गया तो वह चर्मचक्षुका अभ्यासी होने के कारण, जहाँ भीत देखता था वहाँ धमसे पानीमे गिर पड़ता था और वन गीले हो जाते थे। जहाँ पानी देखकर कपड़े उठाकर चलता था, वहाँ पडाकसे भीतसे उसका सिर टकरा