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[साधारण धर्म तक ही साथ देता है, परन्तु कर्म के साथ बँधे हुए अकेले इस जीत्रको ही परलोकयात्रा करनी पड़ती है।
दूसरोंके स्वार्थको कुचलकर अपना स्वार्थ साधनेमें स्वभाविक ही चित कठोर हो जाता है और जैसा पीछे कहा जा चुका है, प्रकृतिका यह स्वभाविक नियम है कि जितनी-जितनी कठोरता होगी उतना-उतना लोहेके समान अग्निमें तपना और चोटोंका खाना जरूरी है। इस प्रकार इन विपयोंका उपार्जन तो दुःखरूप म्पष्ट ही है। दूसरे, इनके नाशमें तो दुःखकी सीमा ही क्या है ? तीमरे, इन पदार्थोंका मध्य रक्षाकाल भी नाशके भयसे दुःखसे असा हुआ है । प्रत्येक मनुष्य अपनी छातीपर हाथ रखकर अपने अनुभवसे इस विषयकी साक्षी देगा कि जितनी-जितनी वस्तु अधिक प्रय है उतना-उतना ही उससे अधिक भय है। जब कभी उसकी दृष्टि अपने प्रिय पदार्थ पर पड़ता है, अथवा उमका चिन्तन होता है उसी कालमें भयकी उत्पचि होती है। 'हाय ! यह मेरी प्यारी बत्तु मुझसे बिछड़ गई तो मैं क्या करूँगा, मेरी क्या गति होगी?' इत्यादि विचार उसके कलेजेको पकड़े ही रहते हैं। प्रकृतिका यह अटल नियम है कि 'अन्योऽसावन्योऽहमस्मि' अर्थात् वह और है मैं और हूँ, इस भेददृष्टिसे किसी भी पदार्थको ग्रहण करो, भयरूपी पिशाच तत्काल गर्दन दवा लेता है, चाहे उस पदार्थमे रागवुद्धि ही क्यों न हो। फिर द्वीपबुद्धिसे भय हो, इसमें तो आश्चर्य ही किया है.? जब, तुम अपनी परछाईमे ही भेदृष्टि करते हो तो वह तुम्हारी अपनी पारलॉई हो तुमको भयदायक हो जाती है तब इवर-पदार्थोसे मय हो, इसमे तो सन्देह ही क्या है ? सारांश, प्रकृतिको भेदष्टि किसी भी रूपसे स्वीकार है ही नहीं, द्वितीया भयं भवति' अर्थात् वैतभावमें भय निश्चय हैं। इस रीतिसे जहाँ द्वैतभावसे किसी प्रकार भी आसक्ति होती है, वहाँ भय अवश्य है, यथाः