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[ साधारण धर्म "देखत ही बिल लायगी ज्यू तारा प्रभात'
तव इस अस्थिरबुद्धि करके तो हम उन पदार्थोंमें आपा दे ही कैसे सकते हैं। परन्तु हाय ! पहले ही ठगे गये, यहाँ को मामला ही दूसरा है । तुम समझते हो हमारी प्रिय वस्तु वही है, परन्तु वस्तु वही रही नहीं। जिस क्षण तुमको प्राप्त हुई थी उससे दूसरे क्षणमे ही वह वो बदल गई, घोका दे गई, अर्थात नष्ट हो गई ! जिस प्रकार गंगाके जिस प्रवाहमें तुमने स्नान किया था, बाहर निकलकर तुम देखते हो कि प्रवाह वहा है। अरे ! यह तो तुम्हारा भ्रम है, वही प्रवाह कहाँ ? वह तो कोसों दूर निकल गया। अथवा सायंकालको तुम दीपक जलाकर सो जाते हो और प्रभात उठकर कहते हो कि 'दीपशिखा वही है । यह तो तुम्हारी भूल है, न वह तेल रहा, न वह वातीरही, फिर शिखा "वही - कहाँसे आई ? जिस क्षण तुमने दीपक जलाया था, उससे उत्तर प्रत्येक क्षणमे ही उस दीपशिखाके प्रवाह बदलते जा रहे हैं। ठीक, यही अवस्था तुम्हारे प्रिय पदार्थोंकी है। जिस पण तुम्हारा प्रिय पदार्थ तुमको प्राप्त हुआ था, उसी क्षण उसका प्रवाह तो मृत्युमुखकी ओर चल पड़ा, जिस प्रकार गंगाका प्रवाह चौत्र वेगसे समुद्रकी ओर दौड़ा जा रहा होता है । और इधर तुम उस पदार्थको वही समझके प्यार करते रहते हो। महान्
आश्चर्य ! कैसी भूल ! पदार्थोंको तुम भले ही प्यार करो, खूव भोगो, परन्तु बदलेमे तुम्हारा यह अज्ञान, यह भूल, यह भ्रम तुमको भोगे विना कब छोड़ सकता है ? हॅसीके बदले रुलाये बिना, शान्तिके बदले तपाये विना कैसे छुटकारा देगा ? बल्कि मच पूछो-दो हँसीके बदले रुलाये जाने और शान्तिके बदले सपाये जानेकी मात्रा कई गुणा अधिक है। मै अनाथ मारा गया'!'हाय ! मेरा सर्वस्व नष्ट हो गया !!' 'अरे मेरा कलेजा फट