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श्रामविलास ] एकका प्रभाव और उसकी प्राप्तिकी इच्छा ही शंप मय प्राम-सुखाको गॅदला व दुःखरूप बनानेमें पर्याम हे। अब यदि चारोंके समुदाय में ही सुख मानते हो, तो प्रथम चागे पदाथोंकी यथेच्छ प्राप्ति ईश्वरसृष्टिमे किसी एक-आध भाग्यवानको ही सुलभ हो सकती है। हर हर ॥ भूल होगई, भाग्यवान् नहीं, अभाग्यवान, हमारे मतमें तो विपयसुस भाग्यवानीके लनण ही नहीं बनते। जो मनुष्य अपना भव्य-भवन (आत्मस्वम्प) परित्याग करके उसके कूड़े-कचरे (भोग्य-विषय) पर ही अधिकार जमा पेठे, वह भाग्यवान् कहाँ ? जिनका कूड़े-कचरेपर ही अधिकार होता है वे तो कुछ और ही कहलाते हैं, हम तो स्वर्गपर्यन्त विषयसुखको भी नरकरूप ही जानते हैं। दूसरे, इन चारों प्रकारके सुखोंका कोई निश्चित परिमाण नहीं बन पड़ता। एक साधारण जमींदारको जो सुख प्राप्त है वह एक कृषीकारकी दृष्टिसे अलं रूप है, परन्तु उस जमींदारकी अपनी दृष्टिसे एक जागीरदारकी अपेक्षा वह अपना सुख तुच्छ ऊंचता है। जागीरदारके वरावरीके सुखोंकी इच्छा उसके मनको मसोसती रहती है और प्राप्त सुखोंको कटु बना देती है। इसी प्रकार राजाके सुखोंकी इच्छा, जागीरदारके प्राप्तसुखोंको दु खोंमें बदल देती है। महाराजाके सुखोंकी इच्छा, राजाके सुखोंको; महाराजाधिराजके सुखोंकी इच्छा, महाराजाके सुखों को, और इन्द्र के सुखोंकी इच्छा, महाराजाधिराजके सुखोंको दुःखरूप में बदल देनेके लिये काफी है। तीसरे, यदि इन्द्रके सुखों को ही अवधिरूप मान लिया जाय, फिर भी प्यारे! विषयजन्य सुखसे शान्ति कहाँ प्राप्त विपयोंसे हम प्यार उसी अवस्थामे कर सकते हैं, जब हम अपने प्रिय पदार्थोंमें सत्यत्व व स्थिरत्व बुद्धि जोड़ते हैं । अर्थात् जो पदाणे हमको प्राप्त हुआ था अब भी वह वही है, वही पुत्र, वही स्त्री और वही हम हैं इत्यादि । यदि इस प्रकार सत्य व स्थिरबुद्धि न हो, अर्थात्