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[साधारण धर्म होता तो तुम्हारे चेगके प्रभावकालमें भी उनसे तुमको सुख मिलना चाहिये था, परन्तु ऐसा तो नहीं होता। जिस कालमें तुधा निवृत्त हो जाती है और उदर पूर्ण हो जाता है, उस समय नुमको यदि थोड़ा भी मधुर भोजन दिया जाय तो तुम अर्ववाहु होकर चिल्लाने हो "नहीं, अब एक प्रासका भी अवकाश नहीं चाहे अमृत भी क्यों न हो।" ___अच्छा अब यदि तुमको यह शंका हो कि वास्तवमें स्वर्ग-मुख ऐसे ही तुच्छ हैं तो वेदने उनकी इतनी प्रशंसा क्यों की ? इमका समाधान ग्रह कि वेद के वचन, जो स्वर्गादि मुखों की महिमा में हैं, अर्थवादरूप हैं। वास्तवमे वेद का तात्पर्य उनकी महिमा में नहीं, किन्तु 'गुड-जिहान्याय से उनके छुड़ानमें ही है। जैसे एक बालक प्रथम मदरसेमें पढ़ने जाता है, तब उस्ताद उसको श्रारम्भमें प्रथम अक्षर 'अलिफ' सिखाता है। परन्तु बालक अभ्यास न होनेके कारण 'अलिफ के स्थान पर 'अफल' वोलता है। दो-चार बार बोलकर जब उस्ताद देखता है कि इसकी जिहा नहीं खुलती है. तब उस्ताद भी उसके साथ-साथ 'अफल' ही बोलने लगता है और इस प्रकार 'असल' वोलतेबोलते उस बालकसे 'अलिफ' कहला लेता है। ठीक, इसी प्रकार वेदरूपी गुरु भी जब देखता है कि विषयी पुरुष जो विपयोंमें रमे हुए हैं भोगोंको छोड़नेमें असमर्थ है तो उनको स्वर्गके विपयांकी महिमा पुष्पिन-वाणीसे कहने लगता है। परन्तु वास्तवमें उसका आशय स्वर्गके विपयोंमें फंसाये रखनेके लिये नहीं है, किन्तु इस लोकके विषयोंसे उपराग करानेमें ही है। इस प्रकार स्वर्ग सुखोंको 'श्रफल' (फलरहित, निस्सार) कहकर 'लिक' (एक अद्वत) में लेजानेमें ही उसका मुख्य तात्पर्य है। इस विषयमें गीता अध्याय २ श्लोक ४२से. ४४ साक्षात् भगवान्के वचन ही लेखक साक्षीमें पेश करता है।