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[साधारण धर्म कर ही हम भोगोंका रस ले सकते हैं, भोक्ता बने रहकर ही कदापि नही।
उपयुक्त व्याख्यासे सिद्ध हुआ कि सुख एकमात्र अहंकार से पल्ला छुड़ानेमे है, चाहे विषयसम्बन्धी सुख हो चाहे परमार्थ सम्बन्धी। विषयभोग भी अपनी प्राप्तिकालमें यद्यपि किसी क्षणके लिये अहंकारसे छुट्टी दिलाते हैं, परन्तु साथ ही अहंकारकी जड़को निकालनेमें सहायक नहीं, इसके विपरीत अहंकारकी जड़को पातालपर्यन्त बढ़ करनेमे हो अपनी सहायता देते हैं, जिसके परिणाममे वास्तविक सुखप्राप्तिके वजाय नरकादिकको यम-यातना ही पल्ले पड़ती है । जिस प्रकार कोई मदिरा-प्रेमी मदिरासेवनसे कुछ कालके लिये देहाध्याससे छुटकारा पाकर अपने आपको सुग्बो मानता है, परन्तु उसके निरन्तर सेवनसे चुपके-चुपके फेफडे गलने लगते हैं, क्षय-रोग उसकी गर्दन पकड़ लेता है और उसकी हड्डियोंको छलनी बना डालता है । ठीक, यही गति विपयमे मीकी विषयोंके सम्बन्ध से होती है । सारांश, सुखका चमत्कार तो हुआ था उपयुक्त रीतिसे अहंकार व इच्छाकी निवृत्तिद्वारा हमारे अन्तरात्मा से, परन्तु अज्ञान करके सुख आया हुआ जानते हैं हम उन विषयोंसे । इसी अज्ञानसे विषयों की इच्छा कर करके हमारी गति कुञ्जरके स्नानके तुल्य हो जाती है और कुलर (हस्ति) की भॉति हम आप ही अपने मस्तकपर विपयरूपी धूल डालते रहते हैं। एक पुरुषने एक सुन्दर गुलाबके पुप्पको देखकर सूचनेके लिये तोड़ा। ज्यों ही उसको नाकतक ले गया कि एकदम चिल्ला उठा । जानते हो! इसके अंदर क्या था? एक शहदकी मक्खी उसके अन्दर छुपी हुई थी, उसने अपना आहार कर लिया। इसी प्रकार इन रमणीय पदाथाको सुन्दर जानकर आप इनको भले ही भोगें, परन्तु इनके भीतर जो विप छिपा हुआ है,