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आत्मविलास ]
[१०० कारण मेरे लिए तो ये शेप-भगवानके समान वन्दनयोग्य ही हैं । म हरिजीका कथन है:एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान्परित्यज्य थे। सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ॥ तेऽमी मानुषराक्षसाः परहित स्वार्थाय निघ्नन्ति ये । ये तु नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।।(भर्तृ,नीति,६४)
अर्थ:-एक ऐसे सत्पुरुष होते हैं, जो अपने स्वार्थीका परित्याग करके दूसरोंके अर्थसाधनमे तत्पर रहते हैं। सामान्य पुरुष के हैं, जो अपने स्वार्थोंके अविरोधके साथ-साथ दूसरो के अर्थसाधनमें उद्यमपरायण रहते हैं और वे ये रातस-मनुष्य - है, जो अपने स्वार्थके लिये दूसरोंके हितको कुचल डालते हैं। परन्तु जो बिना ही किसी अर्थके दूसरोंके हितको कुचलनेवाले है वे क्या कहे जा सकते हैं, यह हम नहीं जानते । अर्थात् जो अपना अहित विना दूसरोंके अहितपरायण हैं, उनके लिये क्या शब्द प्रयोग किया जाय, इस विषयमे शब्दकोप भी मौन है।
क्या इन पुरुषोंके लिये धर्मके राज्यमे कोई उपचार नहीं हो सकता ? क्या इनके लिये धर्मराज्यमें कोई अवकाश नहीं है ? नहीं,नहीं, ऐसा क्योंकर होसकता है । सर्वव्यापी, सर्वजीवहितकारी, करुणामय, उदार धर्मका चर-अचर जीवसृष्टिमें सवपर राज्य है। वह प्राणिमात्रके लिये श्रेयापथप्रदर्शक है और सबको अवकाश देनेवाला है। वह सङ्कचित कैसे किया जा सकता है ? इन पुरुपोंके लिये वह धर्म करुणामय सदाशिव रूप धारकर और उनके हृदयमे साक्षात् प्रवेश करके अपने त्रितापरूपी त्रिशूलसे इनके हृदयोंको विदीर्ण करता है तथा भाँति-भाँतिसे इनके हृदयों में क्रोधाग्नि प्रज्वलित करके कमसे कम उनको राक्षस-मनुष्यकी