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आत्मविलास J
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धर्मका लक्ष्य था, उसके स्थानपुर सव ओरसे खीचकर वह समareष्टि एक वेश्याको प्रदान की जाती है। इस समता दृष्टिको कोटिश. धिक्कार है, जिसके द्वारा सभी मर्यादाएँ भङ्ग हो जाती हैं और भविष्य ऐसा. भयङ्कररूप धारण करता है-किन पूछना और न कहना ही अच्छा है । सारांश, सब प्रकारसे ही इस पवित्र संस्कार की ऐसी मिट्टी पलीद की जाती है और अपने तमोगुणका पूर्णरूपसे ऐसा विकास किया जाता है कि, 'घर फूंक, तमाशा देखता' ठीक-ठीक दर्शाया जाता है | घर फॅक ही नहीं, 'शरीर फॅक, नहींनही इतना ही नहीं, बल्कि 'सम्पूर्ण जीवन फूंक तमाशा देखना' वन जाता है ! क्या इसको खोलनेकी जरूरत है धननाश,' शरीरनाश, कुलनाश मर्यागनाश, आधारनाश, विचारनाश, धर्मनाशः अर्थात् लोकनाशाय परलोकनाथ सभी नाश - अपनी डेरा जमा लेते हैं । फिर 'सम्पूर्ण जीवन फूँक तमाशा देखने में कमी ही क्या रह गई ?.
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चरणोंमें प्रथम भेट |
विच्छूके समान विना ही प्रयोजन डङ्कप्रहार ऐसे पुरुषोंका' पामर पुरुषों का प्राकृत | स्वाभाविक कर्तव्य है । सहस्र नेत्रोंसे स्वभाव तथा चैता के पराये छिद्रोंका देखना उनकी स्वभाविक त्यागकी - दृष्टि है, जिस प्रकार गृद्धपती सड़े मांसपर ही दृष्टि रखता है। वे विना हीं' काज दूसरों' काका करने के लिये दाहिनेम्याएं लगे रहते हैं, इतनी ही नहीं, बल्कि अपना अकात करके भी यदि दूसरोंका अहित 'साधन हो' तो उससे उन्हें परमानन्द प्राप्त होता है। उनके जीवनको उपल (श्रोला) की उपमा दी जा सकती हैं, जो श्राप गर्लकर भी खेतीको नाश कर देता है । अथवा मक्षिकाकी उपमा दी जा सकती है, जो धृतमें गिरकर अपने आपको नष्ट करके भी घृतको अपवित्र 'ही करती है । गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने रामायणके प्रारम्भ में ऐसे पुरुपोका लक्षण इस प्रकार किया है :
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