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आत्मविलास]
६.१०२ अनपेक्षः शुचिर्दच उदासीनो गतव्यथः ।। सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ यो न हृष्यति न दृष्टि न शोचति न झाङ्क्षति । शुभाशुभपरित्यगो भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ . समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदःखेषु संमः सङ्गविवर्जितः ॥ . तुल्यसिन्दास्तुतिमौनी संतुष्टो येन केनचिंच. . अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो. नरैः ।।
' (श्लो० १३ से १६ अर्थः-जो सब भूतोंमें कैपभावसे रहित, स्वार्थरहित सवका प्रेमी, हेतुरहित दयालु, ममता व, अहंकारसे रहित, सुख-दुःखमें समान और अपराध करनेवालोंको भी,अभय देनेवाला है, ऐसा क्षमावान् निरन्तर सन्तुष्ट तथा मन-इन्द्रियो को वशमें किये हुए जो मेरेमें दृढ़ निश्चयवाला है और जिसने मन-बुद्धि मेरेमें अर्पण कर दी हैं, ऐसा जो मेरा भक्त है-वह मुझे प्यारा है। जिससे कोई भी जीव उद्वेगको प्राप्त नहीं होता और जो आप किसी भी जोक्से उद्वेगवान् नहीं होता तों जो हर्प, ईर्षा, भय एव, उद्धगसे रहित है, वह भक्त मेरा प्रिय है। जो पुरुप
आकाक्षारहित, पवित्र और चतुर है, उदासीन मावसे स्थित व दुःखोंसे छूटा हुआ है"और" कर्तव्यरूपसे "सव प्रारम्भोका त्यागी है, ऐसा जो मेरा भक्त है वह मेरा यारा हैगजोन हर्षवान होता है, न द्वेष करता है, न सोच करता है, न इच्छा करता है तथा जिसकी दृष्टिंस शुभ-अशुमकी भावना निवृत्त हो गई है. ऐमा भक्तिमान पुरुप मेरेको प्रिय है। जो शत्र-मित्रमे